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अनेकान्त-56/3-4
विशेषण है, चिन्ता ज्ञान की पर्याय है। उस ज्ञान की व्यग्रता दूर होना ही ध्यान है। जैनदर्शन में एकाग्र ध्यान की प्रधानता है 'अग्र' से अभिप्राय आत्मा है। ध्यान में आत्मा को ही प्रधान लक्ष्य माना गया है। ध्यान स्ववृत्ति है । ध्यान में बाह्य चिन्ताओं से निवृत्ति होती है। ध्यान के लिए 'एकाग्रचिन्तानिरोध' ही यथार्थ है । किसी एक विषय में निरन्तर रूप से ज्ञान का रहना ध्यान है और वह वास्तव में क्रमरूप ही है । जो मोह और रागद्वेष से दूर है तथा मन, वचन, काय रूप योगो के प्रति उपेक्षित है उसको शुभाशुभ को जलाने वाली ध्यानमय अग्नि प्रकट होती है । तत्वानुशासन के अनुसार आत्मा, अपने आत्मा को, अपने आत्मा में, अपने आत्मा के द्वारा अपने आत्मा के लिए, अपने-अपने आत्महेतु से ध्याता है इसलिए कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण- ऐसे षट्कारक रूप परिणत आत्मा ही ध्यान स्वरूप है I
ध्यान के अंग
ध्याता, ध्यान, ध्येय व ध्यान - फल रूप चार अंग वाला ध्यान अप्रशस्त और प्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है
ध्यान के भेद
ध्यान का यथार्थ स्वरूप जानना हो तो उसके भेद-प्रभेद को जानना अत्यावश्क है। आगम कथनानुसार विचारधारा अनेक प्रकार की हैं क्योंकि आत्मा (जीव ) का स्वभाव परिणमनशील है। शुभाशुभ असंख्य विचारधाराओं को समझना कठिन होने से ज्ञानियों ने उन्हें चार भागों में विभाजित किया है। उन्हें ध्यान की संज्ञा दी गई है ।
आगम में मुख्यतः ध्यान के चार भेद हैं :
1. आर्त्त ध्यान, 2. रौद्रध्यान, 3. धर्मध्यान 4. शुक्लध्यान ।
आगमकथित आर्त्तध्यान के चार भेद
(1) अमनोज्ञ - वियोगचिन्ता - अमनोज्ञ शब्द, रूप, गंध रस और स्पर्श तथा उनके साधनभूत वस्तुओं का संयोग होने पर उनके वियोग की चिन्ता