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________________ अनेकान्त-56/3-4 ‘आद्यास्तु षट् जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनुत्रयः । शेषौ द्वावुत्तमाभुक्तौ जैनेषु जिनशासने । । ' 50 आचार्य सोमदेव ने उक्त विविध श्रावकों को क्रमशः गृही, ब्रह्मचारी और भिक्षुक नाम दिये है । यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन में कहा गया है 'षडत्र गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युर्ब्रह्मचारिणः । भिक्षुकौ द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ।।' 55 अर्थात् पहले की छह प्रतिमाओं के धारक गृही कहे जाते हैं। तीन, सातवीं, आठवीं एवं नवमी प्रतिमाओं के धारक ब्रह्मचारी कहलाते हैं तथा दो, दसवीं एवं ग्यारहवीं प्रतिमाओं के धारी भिक्षुक कहे गये हैं। उसके पश्चात् सब मुनि होते हैं । यहाँ यह ध्यातव्य है कि संयमप्रकाश में प्रथम से षष्ठ प्रतिमाधारी को नैष्ठिक, सप्तम से नवम प्रतिमाधारी को ब्रह्मचारी तथा दशम एवं एकादश प्रतिमधी को साधक कहा गया है 152 सभी प्रतिमाओं की त्रिविधता आचार्य जयसेन द्वारा विरचित धर्मरत्नाकार में प्रत्येक प्रतिमा का वर्णन उत्तम, मध्यम और जघन्य रूप से भी किया गया है । अतः प्रत्येक प्रतिमा में भी तारतम्य है । संक्षेप में इनके तारतम्य को इस प्रकार देखा जा सकता है 1. दर्शन प्रतिमा उत्तम-सप्तव्यसन त्याग, रात्रिभोजन त्याग तथा निरतिचार मूलगुणपालन मध्यम- रात्रिभोजन त्याग तथा मूलगुण धारण । जघन्य - व्रतधारण की भावना, निरतिचार सम्यग्दर्शन धारण । 2. व्रत प्रतिमा उत्तम-सम्यग्दर्शनपूर्वक निरतिचार अणुव्रत एवं गुणव्रत पालन । मध्यम- मूलगुणों का पालन । जघन्य - केवल अणुव्रतों का पालन ।
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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