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________________ 48 अनेकान्त-56/3-4 शरीर और इन्द्रिय के भोगों से विरक्त है, पञ्च परमेष्ठी के चरणों की शरण को प्राप्त है और तात्त्विक सन्मार्ग को ग्रहण करने में रुचि रखता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दार्शनिक श्रावक कहलाता है । " दर्शन प्रतिमा के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए पं. गोविन्द ने लिखा है "न विना दर्शनं शेषाः प्रतिमा विधृता अपि । शिवाय नु प्रजायन्ते भवैरपि परः शतैः । ज्ञात्वेति दर्शनं धृत्वा निर्मलं विमलाशयैः । शेषाः धार्याः यथाशक्ति प्रतिमाः प्राणिरक्षकैः । । "20 अभिप्राय यह है कि दर्शन प्रतिमा के बिना शेष धारण की गई भी प्रतिमायें सैकड़ों भवों के द्वारा भी मनुष्य को मुक्ति की प्राप्ति के लिए नहीं होती हैं । ऐसा जानकर निर्मल अभिप्राय वाले प्राणियों की रक्षा करने वाले मनुष्यों को निर्मल दर्शन प्रतिमा को धारण करके ही शेष प्रतिमाएँ शक्ति के अनुसार धारण करना चाहिए। 2. व्रत प्रतिमा इस प्रतिमा का धारक व्रती दर्शन प्रतिमा में कथित गुणों का पालन करता हुआ पञ्चाणुव्रतों का निरतिचार पालन करता है, तीन गुण-व्रतों तथा चार शिक्षाव्रतों का भी निःशल्य होकर निरतिचार पालन करता है । समन्तभद्राचार्य ने कहा है “निरतिक्रमणमणुव्रतपञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि । धारयते निःशल्यो योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिकः । ।" " स्वामी कार्तिकेय ने इन व्रतों के साथ-साथ ज्ञानी होना भी व्रती का लक्षण माना है। 22 लाटी संहिता में दूसरी प्रतिमाधारी के लिए रात्रि में लम्बी दूरी के आने-जाने का निषेध किया गया है तथा घोड़ा आदि सवारी करके दिन में भी गमन करने का निषेध किया गया है। लाटीसंहिताकार का विचार है कि सवारी पर चढ़कर जाने में ईर्या संशुद्धि कैसे संभव हो सकती है ? 25 3. सामायिक प्रतिमा सामायिक नामक तीसरी प्रतिमा का धारी श्रावक चार बार तीन-तीन आवर्त और चार बार नमस्कार करने वाला यथाजात रूप से अवस्थित ऊर्ध्व कायोत्सर्ग और पद्मासन का धारक, मन-वचन-काय की --
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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