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अनेकान्त-56/1-2
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विषकुम्भ हैं। वहाँ तो अप्रतिक्रमण अर्थात् निश्चय प्रतिक्रमण आदि ही अमृतकुम्भ हैं।"
जयसेनाचार्य अमृतचन्द्राचार्य का अनुसरण प्रायः अवश्य करते हैं किन्तु जहाँ भी आत्मख्याति में तत्त्व का सामान्य प्रतिपादन हुआ है, वहाँ उसका विशेष स्पष्टीकरण आचार्य जयसेन ने अवश्य किया है। पात्र की दृष्टि से भी कथन करके टीका प्रत्येक अध्येता को ग्राह्य बना दी है।
तात्पर्यवृत्ति में जीव के भावो की विशिष्टता का सम्यक् प्रकारेण चित्रण किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अध्यवसान भाव रहित मुनि ही को शुभ अशुभ कर्मो के बन्ध से बचाया है। इसे जयसेन स्वामी ने किञ्च विस्तरः लिखकर स्पष्ट किया है-"जिस समय इस जीव को शुद्धात्मा का समीचीन रूप श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान स्वरूप निश्चय रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका ऐसा भेदविज्ञान नही होता है, तो उस समय वह जीव "मैं इन जीवों को मारता हूँ" इत्यादि रूप से हिसा के अध्यवसान को "मैं नारक हूँ" इत्यादि कर्मोदय के अध्यवसान को "यह धर्मास्तिकाय है'' इत्यादिरूप से ज्ञेय पदार्थ के अध्यवसान को जानता है। तब उस समय वह उस हिसा अध्यवसानरूप विकल्प के साथ अपने आपको अभेदरूप जानता हुआ वैसे ही श्रद्धान करता है, जानता है और वैसे ही आचरण करता है इसलिए मिथ्यादृष्टि होता है और मिथ्याचारित्री भी होता है। इसीलिए उसके कर्मबन्ध होता है। वह सम्यग्दृष्टि होता है, सम्यग्ज्ञानी होता है और सम्यक्चारित्रवान् होता है, उस समय कर्म का बन्ध नहीं होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द के कथन "जब तक यह छद्मस्थ जीव बाह्य वस्तुओं के संबन्ध में संकल्प विकल्प करता है, तब तक उसके हृदय में आत्मा के विषय का ज्ञान नही होता है अतः तभी तक वह जीव शुभ और अशुभ जाति के कर्म भी करता है।
अनन्तज्ञान सम्पन्न आत्मा को शुभाशुभ प्रवृत्ति वाला नहीं जान सकता है। जो आत्मोपलब्धि वाला है, वही सम्यग्दृष्टि है आचार्य ज्ञानसागर पात्र विवक्षा से सम्यग्दर्शन का कितना स्पष्ट वर्णन करते है “आचार्य श्री ने यहा आत्मोपलब्धि की बात कही है'' वह आत्मोपलब्धि तीन प्रकार की है