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________________ अनेकान्त-56/3-4 43 अभिप्राय यह है कि जो श्रद्धालु जैन शासन को सुनता है, दीन जनों में अर्थ को तुरन्त प्रदान करता है एवं सम्यग्दर्शन का वरण करता है तथा सुकृत एवं पुण्य करके संयम का आचरण करता है, चतुर लोग उसे श्रावक कहते हैं। श्रावक के लिए प्रयुक्त पर्यायवाची - व्रती गृहस्थ को श्रावक शब्द के अतिरिक्त विविध श्रावकाचारों में उपासक, सागार (आगारी), देशसंयमी (देश विरती/अणुव्रती) आदि नामों का भी उल्लेख हुआ है। रत्न-करण्डश्रावकाचार में श्रावक को मोक्षमार्गस्थ गृहस्थ कहकर निर्मोही होने की दशा में उसे मोही मुनि से भी श्रेष्ठ माना गया है गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः।।' सामान्यतः उपासक, सागार और देशसंयमी शब्द पर्यायवाची माने गये हैं, तथापि योगार्थ की दृष्टि से इन शब्दों में अपना-अपना वैशिष्ट्य छिपा है। जो अपने अभीष्ट देव एवं गुरु की उपासना करता है, वैयावृत्ति और आराधना करता है वह उपासक कहलाता है। गृहस्थ व्यक्ति वीतराग देव की आराधना करता है एवं निर्ग्रन्थ गुरूओं की वैयावृत्ति करता है तथा यथाशक्ति व्रतों को धारण करता है, अतः उसे उपासक कहा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि श्रावक के लिए उपासक शब्द प्राचीन काल में बहुशःप्रचलित रहा है। इसी कारण व्रती गृहस्थ के आचार विषयक ग्रन्थों का नाम प्रायः उपासकाध्ययन या उपासकाचार रहा है। स्वामी समन्तभद्र द्वारा विरचित रत्नकरण्डक को भी उसके संस्कृत टीकाकार आ. प्रभाचन्द्र ने 'रत्नकरण्डकनाम्नि उपासकाध्ययने' वाक्य में रत्नकरण्डक नामक उपासकाध्ययन ही कहा है। घर में रहने के कारण गृहस्थ श्रावक की सागार संज्ञा है। इसे गेही, गृही, गृहमेधी नाम भी प्रयुक्त हुये हैं। यहाँ गृह वस्त्रादि के प्रति आसक्ति का उपलक्षण प्रतीत होता है। अणुव्रत रूप देशसंयम को धारण करने के कारण श्रावक को देशसंयमी, देशव्रती या अणुव्रती भी कहा गया है। इसका संयतासंयत नाम से भी उल्लेख हुआ है। श्रावक धर्म प्रतिपादन के आधार - जैन वागमय में चारित्र का प्रतिपादन
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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