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________________ अनेकान्त-56/3-4 23 भी हैं -- जैन दर्शन के अनुसार कर्म की आठ मूल प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता यह केवल उत्तर प्रकृतियों में ही होता है । " उत्तर प्रकृतियों में आयु कर्म की चार प्रकृतियों का एक दूसरे में संक्रमण नहीं होता । मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों (दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय) का एक दूसरे में संक्रमण नहीं होता । पर इनकी उत्तरा प्रकृतियों का होता है । " उदायावलिका बंधावलिका, उत्कर्षणावलिका और संक्रमणा वलिका आदि को प्राप्त कर्मस्कन्धों में संक्रमण नहीं होता । अर्थात् वे कर्मस्कन्ध जो उदय, बन्ध, उत्कर्षण और संक्रमण की सीमा में जा चुके हैं उनका संक्रमण नही होता । ' कर्मो का जिस रूप में बन्ध होता है, कर्म उसी रूप मे फलोन्मुख नहीं होते वर्तमान पुरुषार्थ के आधार पर उनकी स्थिति और शक्ति में हीनाधिकता होती रहती है। जो इस प्रकार है अपकर्षण- कर्मो की स्थिति अर्थात् बंधे रहने का समय और अनुभाग दोनों की हानि होना अपकर्षण कहलाता है । ' कर्मो की स्थिति का अपकर्षण होने पर कर्म जितने काल के लिए बंध को प्राप्त हुए थे उनका वह काल पहले से बहुत कम हो जाता है । जिस प्रकार कर्मो की स्थिति में कमी हो जाती है उसी प्रकार अनुभाग शक्ति में भी कमी हो जाती है तीव्रतम शक्तिवाले संस्कार एक क्षण में मन्दतम हो जाते है । " उदाहरणार्थ राजा श्रेणिक ने मुनि यशोधर के गले में सर्प डालकर सातवें नरक की आयु का बन्ध किया था पर शीघ्र ही उनकी भावना में निर्मलता आने से सातवे नरक की स्थिति कम होकर पहले नरक की हो गयी और आयु मात्र चौरासी हजार वर्ष शेष रह गयी थी । यह ऐसा रहस्य है जिससे वर्तमान कर्मो द्वारा अनागत को सुधारा जा सकता है और पूर्वसंचित कर्मो का क्षय किया के
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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