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________________ 24 अनेकान्त-56/3-4 जा सकता है I उत्कर्षण - कर्मो की स्थिति अर्थात् बंधे रहने के समय और अनुभाग में वृद्धि हो जाना उत्कर्षण है । " कर्मो की स्थिति का उत्कर्षण हो जाने पर, कर्म जितने काल के लिए बंध को प्राप्त हुए थे, उसका उल्लंघन कर अधिक समय तक उदय में आते हैं। जैसे स्थिति में वृद्धि हो जाती है उसी तरह अनुभाग शक्ति में भी वृद्धि हो जाती है। इससे मन्दनतम शक्तिवाले संस्कार क्षणभर में तीव्रतम हो जाते हैं । उदारणार्थ किसी जीव ने पहले शुभ कर्मो का बन्ध किया फिर उसकी भावनाएँ और भी निर्मल हो जाएं तो शुभकर्मो की स्थिति और फलदान शक्ति बढ़ जायेगी । संक्रमण - पहले बंधी कर्म प्रकृति का अन्य प्रकृति रूप परिणमना संक्रमण है । * श्री जिनेन्द्र वर्णी ने शब्दकोश में लिखा है- जीव के परिणामों के वश में पूर्वबद्ध कर्म प्रकृति का बदलकर अन्य रूप हो जाना सक्रमण है । " कुसंगति के प्रभाव से सज्जन दुर्जन हो जाते हैं और सत्संगति के प्रभाव से दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं। यह सक्रमण ही है जो अभ्यास के द्वारा व्यक्ति के स्वभाव को बदल देता है I उदीरणा - कर्मो के फल भोगने के काल को उदय कहते है और भोगने के काल से पहले ही अपक्व कर्मो को पकाने का नाम उदीरणा है । आत्माराम न उदीरणा की विवेचना करते हुए लिखा है- जो कर्म स्कन्ध भविष्य में उदय में आने वाले हैं उन्हें विशिष्ट प्रयत्न तप, परीषहसहन, त्याग, ध्यान आदि के द्वारा खींचकर उदय में आये हुए कर्मों के स्कन्धों के साथ पहले ही भोग लेना उदीरणा है । इस प्रकार उदीरणा में लम्बे समय के बाद आने वाले कर्मो को पहले ही भोग लिया जाता है । " उपशम कर्मों के उदय को कुछ समय के लिए रोक देना उपशम कहलाता
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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