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________________ क्या बद्ध कर्मों में परिवर्तन संभव है? -डॉ. आराधना जैन स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।। निजार्जितं कर्मविहाय देहिनो न कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन्। विचारयन्नेवमनन्य मानसः परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम् ।। आचार्य अमितगति के उक्त पद्यों का पं. श्री जुगलकिशोर जी ने पद्यानुवाद किया है स्वयं किये जो कर्मशुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते। करें आप फल देय अन्य तो स्वयं किये निष्फल होते।। अपने कर्म सिवाय जीव को कोई न फल देता कुछ भी। पर देता है यह विचार तज स्थिर हो छोड़ प्रमादी बुद्धि ।। इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक जीव को अपने कृत कर्मो का फल भोगना पड़ता है। पर जब तक कर्म सत्ता में रहते हैं तक उनमें अनेक परिवर्तन होते रहते हैं। उसकी शक्ति, अवधि आदि जीव के परिणामो से घट भी सकती है और उनमें वृद्धि भी हो सकती है। जैसे यदि दस हजार रु. की राशि 7/8 वर्ष के लिए फिक्स्ड कर दे तो निश्चित अवधि के बाद दुगनी मिलेगी। हम चाहे तो इस फिक्स्ड राशि की अवधि बढ़ा कर तिगनी या चार गनी राशि भी प्राप्त कर सकते है। यदि हम चाहें तो इस पर ऋण भी ले सकते हैं और चाहे तो समय से पूर्व ही उसे समाप्त कर प्राप्य राशि का भुगतान भी प्राप्त कर सकते है। इसी प्रकार कर्मो की स्थिति फलदान शक्ति में परिवर्तन हमारे पुरुषार्थ से होता रहता है। आगम की भाषा में इसे संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण कहा जाता है। संचित कर्म में प्रायः ऐसे परिवर्तन होते रहते हैं पर कुछ कर्म इसके अपवाद
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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