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________________ भारतीय जैन कला में प्रतिमा एवं मूर्तिकला -(डॉ.) श्रीमती मीनाकुमार जैन धर्म में मोक्ष का परम साधन कर्म का क्षय माना गया है। धर्म के नियम और सिद्धान्तों का सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके उसे व्यवहार में लाने को सम्यक् चरित्र कहते हैं। इस मार्ग में अनुभवसिद्धज्ञान प्राप्त करने वाले 24 तीर्थकर हुए हैं, जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष द्वारा “जिन" पद प्राप्त किया और तीर्थकर कहलाये हैं। तीर्थ शब्द का शाब्दिक अर्थ नदी या नाला है अर्थात् जो संसार रूपी नदी को पार कर ले, तीर्थकर है। जैन-धर्म ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करता, वह यह नही मानता कि कोई ऐसा ईश्वर है, जिसने संसार की रचना की मनुष्य; स्वयमेव अपने दुःख-सुख के लिये उत्तरदायी होता है। ___ श्री द्रिजेन्द्र नाथ शुक्ल ने बताया है- तीर्थकरों की प्रतिमाओं का प्रयोजन जिज्ञासु जैनों में न केवल तीर्थकरों के पावन-जीवन, धर्म वे प्रचार और कैवल्य प्राप्ति की स्मृति ही दिलाना था वरन् तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित पथ का पथिक बनने की प्रेरणा भी थी। जैन तीर्थंकर-प्रतिमा का निर्माण प्रतिमा का शाब्दिक अर्थ प्रतिरूप होता हैं। प्रतिरूप से तात्पर्य समान आकृति से है। पाणिनी ने अपने सूत्र “इवे प्रति कृतो" में समरूप आकृति के लिये प्रतिकृति शब्द का प्रयोग किया है। प्राचीन भारत में प्रतिमा शब्द का प्रयोग वैदिक युग से ही होता चला आ रहा हैं। ऋग्वेद में यज्ञ के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रतिमा शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रतिमा कला का विकास वैदिक युग में हुआ था या नही यह विवादास्पद रहा है। वैदिक कालीन मूर्तिकला एवं प्रतिमा कला के उदाहरण प्राप्त नहीं होते
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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