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________________ 126 अनेकान्त-56/1-2 अन्तर्गत मानना पड़ेगा। ___ यह आश्चर्य का विषय है कि कुछ सुयोग्य विद्वान् 14वी सदी के यति मदनकीर्ति या 20वीं सदी की प्रकाशित दिल्ली जैन डायरेक्टरी या 1998 मे प्रकाशित भारत जैन तीर्थदर्शन मे वैशाली-कण्डपर या उल्लेख न होने से उसे अपने पक्ष के समर्थन का सबल प्रमाण तो मानते हैं, किन्तु आचार्य पूज्यपाद एव गुणभद्रादि के विदेह-स्थित कुण्डलपुर सम्बन्धी उल्लेख को प्रामाणिक नहीं मानना चाहते। एक ओर तो वे श्वेताम्बर या बौद्ध-साहित्य को मान्यता भी नही देना चाहते और दूसरी ओर वे अपने पक्ष के समर्थन में भगवती सूत्र, समवायाग-सूत्र या आवश्यक-नियुक्ति के उद्धरण भी प्रस्तुत कर रहे हैं। एक ओर तो जैनेतर विद्वानों को वे मान्यता नही देते, जबकि दूसरी ओर अपने पक्ष के समर्थन में उनकी कुछ मान्यताओं की सराहना भी कर रहे हैं। कैसा विरोधाभास है? जिन हर्मन याकोवी प्रभृति पाश्चात्य तथा डॉ. प्राणनाथ, डॉ. आर. पी. चदा प्रभृति प्राच्य इतिहासकारो ने जैनधर्म को हिन्दु या बौद्धधर्म की शाखा मानने वालो के कुतर्को का निर्भीकता के साथ पुरजोर खण्डन कर उसे प्राचीनतम एव स्वतन्त्र धर्म घोषित किया और हड़प्पा-सस्कृति को उससे प्रभावित बतलाया, तब उसे तो मान्यात दे दी गई किन्तु अब उन्हीं अथवा उनकी परम्परा के विद्वानों के द्वारा अन्वेषित और घोषित विदेह-कुण्डलपुर का विरोध भी किया जा रहा है। यहाँ तक कि उन्हें अज्ञानी भी कहा जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि उनकी बातों को मानने से हम कपथगामी हो जावेंगे। एक निष्पक्ष इतिहासकार के लिये ऐसा कहना कहाँ तक उचित है? __ ये आदरणीय सुयोग्य विद्वज्जन भाषा-विज्ञान की दृष्टि से कोटिग्राम का परिवर्तन कुण्डग्राम में हो पाना असम्भव मानते हैं। यदि यही बात युक्तियुक्त है, तो फिर चन्द्रगुप्त से सेंड्रोकोट्टोस, सूतालूटी से कलकत्ता या कोलकाता, अरस्तू से अरिस्टोटल, अलेग्जेंडर से सिकंदर, उच्छकल्प से उँचेहरा, किल्ली से दिल्ली और दिल्ली, कोटिशिला से कोल्हुआ, बकासुर से बक्सर, रतिधव से रइधू, त्यागीवासः से चाईवासा, कलिंग से उड़ीसा, चन्द्रवाडपट्टन से
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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