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________________ अनेकान्त- 56/1-2 7. 8. 9. 111 का है त्यागी को इस दल-दल से दूर करना चाहिए। लोकेषणा की चाह सस्थावाद मे फसाने वाला तत्व है। त्यागी आत्म परिणामों पर दृष्टि रखते हुए जितना उपदेश बन सके उतना त्यागी दे अधिक की व्यग्रता न करे। त्यागी को ज्ञान का अभ्यास अच्छा करना चाहिए। कितने ही त्यागी ऐसे है जो सम्यग्दर्शन का लक्षण नही जानते, आठ मूलगुणों के नाम नही गिना पाते ।... त्यागी को क्रमपूर्वक अध्ययन करने का अभ्यास करना चाहिए।... आगम ज्ञान के बिना लोक मे प्रतिष्ठा नही और प्रतिष्ठा की चाह घटी नही इसलिए त्यागी ऊट पटांग क्रियाये बताकर भोली-भाली जनता मे अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखना चाहते है, पर इसे धर्म का रूप कैसे कहा जा सकता है। ज्ञान का अभ्यास जिसे है वह सदा अपने परिणामो को तोलकर ही व्रत धारण करता है। समाज मे त्यागियो की कमी नही परन्तु जिन्हें आगम का अभ्यास है ऐसे त्यागी कितने हैं? अतः मुनि हो या श्रावक सबको आगम का अभ्यास करना चाहिए। व्रतियों / श्रावकों का स्वछन्द विचरण ठीक नहीं। दीक्षागुरू की आज्ञा से धर्मप्रचार हेतु दक्ष मुनि एकल विहारी हो सकता है। एकल विहार आगम विरुद्ध प्रवृत्ति होती है जो शिथिलाचार की पोषक है। गुरु के साथ अथवा अन्य साथियो के साथ विहार करने में इस बात की लज्जा या भय का अस्तित्व रहता था कि यदि हमारी प्रवृति आगम के विरुद्ध होगी तो लोग हमे बुरा कहेंगे, गुरु प्रायश्चित देंगे पर एकलविहारी होने पर किसका भय रहा? जनता भोली है इसलिए कुछ कहती नही, यदि कहती है तो उसे धर्म निन्दक आदि कहकर चुप कर दिया जाता है। इस तरह धीरे-धीरे शिथिलाचार फैलता जा रहा है। किसी मुनि को दक्षिण या उत्तर का विकल्प सता रहा है तो किसी को बीसपथ और तेरहपंथ का । किसी को दस्सा बहिष्कार की धुन है तो कोई शूद्र जल त्याग के पीछे पड़ा है। कोई स्त्री प्रक्षाल के पक्ष में मस्त है तो कोई जनेऊ पहराने और कटि में धागा बधवाने में व्यग्र है। कोई
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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