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________________ 110 अनेकान्त-56/1-2 सम्बन्धित अनेक विवाद ग्रस्त विषयो पर गहन चर्चा की गई और आगम तथा आर्ष परम्परा के आलोक मे सम्मेलन में निम्न निष्कर्ष ग्रहण किए गए। चार दशक पूर्व जो प्रवृत्तिया बीज रूप में दिखाई देती थी वे अब वट वृक्ष के रूप में दिखाई देने लगी है। अत: समय के निष्कर्ष आज भी समीचीन, दिशाबोधक एव उपादेय हैं। वे निष्कर्ष सर्व जानकारी हेतु नीचे उद्धृत किये है। विश्वास है सभी महानुभाव उक्त सम्मेलन में लिए गए निर्णयो के प्रकाश मे अपनी चर्या आगमानुसार कर पद की गरिमा बनाये रखकर श्रमण सस्कृति को सुरक्षित रखेगे और ब्रह्मचारी भैया/दीदी समाज के आश्रित नही बनेगे। 1. जैनधर्म के श्रद्धालु त्रिवर्ण वाले व्यक्ति द्वारा जैनधर्म की प्रक्रिया से आहार बनाने पर व्रती उसे ग्रहण कर सकता है। 2. नवधाभक्ति का पात्र मुनि है क्षुल्लक नहीं। क्षुल्लक को पड़गाह कर पाद प्रक्षालन कर त्रियोग और अन्न जल शुद्धि प्रकट कर आहार देना चाहिए। जैनागम अनेकान्त दृष्टि से पदार्थ का निरूपण करता है अत: कार्यसिद्धि के लिए निमित्त और उपादान दोनो आवश्यक है....दोनो की अनुकूलता से कार्य की सिद्धि होती हैं कथन कही-कहीं निमित्त या उपादान प्रधान हो सकते हैं परन्तु सर्वथा उपेक्षा न हो। जैनागम में व्रत न लेना अपराध नहीं है किन्तु व्रत लेकर उसमे दोष लगाना या भग करना अपराध है। अतः चरणानुयोग के अनुसार प्रवृत्ति हो। पूर्वापर विचार कर ही व्रत ग्रहण करें और उनका प्रयत्न पूर्वक पालन करें। सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा तक न्यायपूर्ण व्यापार करने की छूट है फिर क्यो पहली दूसरी प्रतिमाधारी त्यागी व्यापारादिक छोड़ भोजन वस्त्रादि के लिए परमुखापेक्षी बन जाते हैं।... यथार्थ में गृह त्याग भोजन 10वीं 11वी प्रतिमा से शुरू होता है। अतः छोटी मोटी प्रतिमा लेकर घर छोड़ना अनुचित है। 6. त्यागियों को किसी संस्थावाद में नहीं पड़ना चाहिए। यह कार्य गृहस्थो
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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