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________________ 98 अनेकान्त-56/1-: (चौपाई) चतुरनिकाय' नमैं सुर पाय', करि प्रणाम अंतिम जिनराय। भाषत हूँ मैं दर्शनसार, पूरब सूरि कथित अनुसार॥ 3॥ नमैं सुरासुर जिनके पाय, भारत चौबीसौं जिनराय। केई तिनके समयनि माहि, भए प्रवर्तक मिथ्या राह।। 4।। नाम मरीच भरत नृप जाम, भयो मिथ्याती अद्य को धाम। सब भ्रष्टनि मैं धोरी' थयो, पूरब सूरि एम वरणयो॥ 5 ॥ ता. कीने नाना वेष, मूरतिमान मिथ्यात विशेष। सम्यक् व्रत के नाशन हेत, और निहू के भये निकेत॥ 6 ॥ एकांत जु संशय मिथ्यात, विपरीत जु विनयज अघपांत। फुनि पंचम अज्ञान विचार, पूरव सूरि कहे परकार।। 7 ॥ सरजकै तट नगर पलास, पिहिताश्रव को शिष्य कुवास। बुद्धिकीर्ति जाको है नाम, पारस तीरथ मैं अघधाम॥ 8 ॥ मछरी' आदि भक्षत कै मांहि , जानें पाप कह्यौ कछु नांहि। राते' कपड़े धरि एकान्त, जाहि प्रवर्तायो सब भांति॥ १ ॥ दही दूध मिश्री फल जथा, मांस जीव-बिन भाख्यो तथा। तातै पल कू भखते जीव, पापीष्टी है नांहि कदीन।। 10॥ मदिरापान न वर्जित भणै, जल घृत तेल समान हि गिरें। ऐसे लोगनिकू बहकाय, वरताये सब पाप उपाय॥ 11 ॥ करै और भौगै फल और, करता पै नहिं विधि को जोर। ऐसैं अपनौ रचि सिद्धांत , नरकनिवास लह्यौ बिन भ्रांत॥ 12 ॥ एकान्त मिथ्यात्व :विक्रम नृप कौं परभव गए। बरस एक सो छतीस भए॥ सोरठ देश वलभिपुर माहि। श्वेताम्बर उपजे शक नांहि।। 13॥ भद्रबाहु गणी को शिष्य। सत्याचार्य भयो सुभविष्य। ताको शिष्य जिनचन्द्रहि दुष्ट। मदाचरण भयो अघपुष्ट।। 14।।
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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