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कवि नथमल कृत 'दर्शनसार-भाषा'
-डॉ. वीरसागर जैन आज से लगभग 1070 वर्ष पूर्व माघ शुक्ला दशमी विक्रम सवत् 990 में धारा नगरी में आचार्य देवसेन ने प्राकृत-भाषा मे एक 'दर्शनसार' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की थी, जिसमे विभिन्न मिथ्या मतो के उद्भव आदि का ऐतिहासिक दृष्टि से सक्षिप्त परिचय दिया गया है। विशेषतया मिथ्यात्व के विपरीत, एकान्त, संशय, विनय और अज्ञान-इन 5 भेदो का इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण परिचय अंकित है। इसी प्रकार द्राविड़ सघ, माथुर संघ, काष्ठा सघ आदि के परिचय की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यद्यपि यह ग्रन्थ अत्यन्त लघुकाय है, परन्तु अपनी विषयवस्तु के कारण पाठको मे बहुत चर्चित रहा है।
प्राकृतभाषा से अनभिज्ञ आधुनिक पाठको के लाभार्थ उक्त 'दर्शनसार' का कवि नथमल ने आज से लगभग 140 वर्ष पूर्व श्रावण कृष्णा चतुर्थी, शनिवार, विक्रम संवत् 1920 मे हिन्दी भाषा मे सुन्दर पद्यानुवाद किया है, जो आज भी बहुत उपयोगी प्रतीत होता है। अत एव साहित्यानुरागी पाठको के अध्ययनार्थ उसे यहाँ उचित सम्पादन के साथ अविकल रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है। मेरी जानकारी के अनुसार आज इसकी एक मात्र पाडुलिपि जयपुर के बाबा दुलीचन्द ग्रन्थ-भण्डार मे उपलब्ध है और अद्यावधि अप्रकाशित है। अथ दर्शनसार भाषा लिख्यते
(दोहा) अनेकान्त प्रकाशकर, नाशै मत एकान्त। अनंत दूषण रहित है, नमौ परम शिव शांत। 1।। देवसेन गणि नैं कियो, प्राकृत दर्शनसार। ताकी भाषा लिखत हूँ, मंदमती-हितकार।। 2।।