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________________ अनेकान्त/55/1 रागादि का अभाव है तो प्राणिघात होते हुए भी अहिंसा है जैसा कि श्री अमृतचन्द्र स्वामी लिखते हैं अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।४४॥ पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय रागादिक का अप्रादुर्भाव अहिंसा है, रागादिको की उत्पत्ति हिंसा है। यह जिनागम का सार है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने जिनके ग्रन्थों की सर्वप्रथम संस्कृत व्याख्या लिखकर यश प्राप्त किया, उन आचार्यवर्य महर्षि कुन्दकुन्द ने लिखा है मरदु जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स॥२१७॥ प्रवचन सार जीव मरे या जीवित रहे, अयलाचारी के हिंसा निश्चित है। यत्नाचारी के हिंसामात्र से बन्ध नहीं है। स्वयं हिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत्। प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः॥ धवला पु. 4.5.6.93 प्रमाद हीन ही जीव रक्षा का प्रयत्न कर सकता है। जीवों का मरण हो या न हो। अयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह हिंसा करता है, जो यत्न पूर्वक आचरण करता है, वह अहिंसक होता है। अयदाचारां समणो छस्सुवि कायेसु वधकरोति मदो।। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो॥ प्रवचनसार 3/18 यत्नाचार रहित श्रमण छहों कार्यों के जीवों का वध करने वाला कहा गया है। यदि वह यत्नपूर्वक प्रवृत्त होता है तो जैसे कमल जल से लिप्त नहीं होता है, वैसे वह हिंसा से लिप्त नहीं होता। हिंसा का दोष मुख्यरूप से असावधानी/प्रमाद योग से ही होता है इसीलिए हिंसा की परिभाषा देते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी लिखते हैं"प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा" इस सूत्र में आचार्य ने 'प्रमत्त योग' पद को विशेष रूप से प्रयुक्त किया है क्योंकि यदि राग-द्वेष का सद्भाव है, भले ही किसी जीव धारी के प्राणों का नाश न हो, किन्तु कषायवान् व्यक्ति अपनी
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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