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________________ अनेकान्त/55/1 विकृति है। स्वभाव तो सृजन है। रक्षण है। जीवों की प्रकृति जीवित रहने की है जैसा कि आचार्य कहते हैं सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं ण मरिजिउं अर्थात् सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चहता। सभी को अपनी जिन्दगी के प्रति प्यार है। आदर व आकांक्षा है। सभी अपनी सुख-सुविधाओ के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। अपने अस्तित्व के लिए सभी संघर्षशील हैं। जैसा मैं हूँ वैसे सभी प्राणी जीवन धारण करने वाले हैं शाश्वत सिद्धान्त को स्थापित करने वाली अहिंसा के सिवाय दूसरा कोई नहीं, यही इसकी सार्वभौमिकता/व्यावहारिकता है। आचार्य शिवार्य द्वारा भी कहा गया है जह ते न पियं दःखं तहेव तेसिं पि जाण जीवाणं। एवं णच्चा अप्पोकमिओ जीवेसु होदि सदा॥ 777 -मूलाराधना जिस प्रकार स्वयं को द:ख अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार दूसरों को भी जानना चाहिए। सम्पूर्ण प्राणियों को अपने समान मानना योग्य है। आचारांगसूत्र में भी यही भाव पाया जाता है- सभी प्राणियों को अपने प्राण प्रिय हैं वे सुख की इच्छा करते है और दु:ख को प्रतिकूल मानते है। वे मरण नहीं चाहते। जीवित रहना चाहते हैं। सबको जीवन प्रिय है दशवैकालिक में भी यही कथन है किसव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरिजीउं। तम्हा जाणवहं घोरं णिग्गंथा बज्जयंति णं। दशवैकालिक अ0 6 गाथा।। सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, मरण नहीं चाहते हैं प्राणिवध घोर निन्द्य कृत्य समझकर निर्ग्रन्थ मुनि उससे दूर रहते हैं। रागादिभावों से ग्रस्त होना प्रमाद कहलाता है। इसीलिए हिंसा और प्रमाद रहित होने को अहिंसा कहा है। अहिंसा का यथार्थ स्वरूप राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, भीरुता, शोक, घृणा आदि विकृत भावों को त्याग करना है। प्राणियों के प्राण नाश करने मात्र को हिंसा समझना ठीक नहीं है। तात्त्विक बात तो यह है कि यदि राग, द्वेष, मोह, क्रोध, अहंकार लोभ, मात्सर्य आदि दुर्भाव विद्यमान हैं, तो अन्य प्राणी को घात न होते हुए भी हिंसा निश्चित है। यदि
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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