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________________ अनेकान्त-55/4 की चर्चा है। भद्रबाहु ने सूत्रकृताड़. में इसका उल्लेख किया है। कुन्दकुन्दाचार्य ने पञ्चास्तिकाय में तथा समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में स्याद्वाद के सातभड़ों का विशद विवेचन किया है। सिद्धसेन दिवाकर, अकलङ्क, विद्यानन्दी प्रभृति जैन नैयायिकों ने इसे सुसम्बद्ध सिद्धान्त का रूप प्रदान किया है। स्याद्वाद 'स्यात्' और 'वाद'-इन दो पदों से निष्पन्न है। 'स्यात्' पद तिडन्त प्रतिरूपक निपात है जो अनेकान्त, विधि, विचार आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। यहाँ यह 'अनेकान्त' द्योतक है।' 'स्यात्' क्वचित् (देश) और कदाचित् (काल) का भी वाचक होता है। संभावना और संशय के अर्थ में भी इसका प्रयोग प्राप्त होता है। स्याद्वाद के संदर्भ में 'स्यात्' पद, संशयार्थक नहीं है। इसका अर्थ है- अनेकान्त; और अनेकान्त अनन्तधर्मात्मक वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान है, अत: 'स्यात्' शब्द भी निश्चितार्थक है। 'स्यात्' के इस अर्थ के साथ संभावना और सापेक्षता भी जुड़े हुए हैं। __'स्यात् पदका प्रयोग किये बिना इष्टधर्म की विधि और अनिष्ट धर्म का निषेध नहीं किया जा सकता, अतः पदार्थ का प्रतिपादन करने वाली प्रत्येक वाक्यपद्धति के साथ 'स्यात्' पद का प्रयोग किया जाता है। यह दो अर्थों को सूचित करता है 1. विधिशून्य निषेध और निषेधशून्य विधि नहीं हो सकती। 2. अन्वयी धर्म (ध्रौव्य या सामान्य) तथा व्यतिरेकी धर्म (उत्पाद और व्यय या विशेष)-ये दोनों सापेक्ष हैं। ध्रौव्य रहित उत्पाद-व्यय और उत्पाद-व्यय-रहित ध्रौव्य कहीं भी उपलब्ध नहीं हो सकता। वस्तु का स्वरूप सर्वात्मक नहीं है, अतः स्व-रूप से उसकी विधि और पररूप से उसका निषेध प्राप्त होता है। उत्पाद और व्यय का क्रम निरंतर चलता रहता है, अत: उत्पन्न पर्याय की अपेक्षा से वस्तु की विधि और अनुत्पन्न या विगत पर्याय की अपेक्षा से उसका निषेध प्राप्त होता है। 'स्याद्वाद का सिद्धान्त यह है कि विधि और निषेध वस्तुगत धर्म हैं। हम अग्नि का प्रत्यक्ष करते हैं, इसलिए उसकी विधि का अर्थ होता है कि अमुक देश में अग्नि है। हम धूम के
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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