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स्याद्वाद
-डॉ सत्यदेव मिश्र सत्यान्वेषण भारतीयदर्शन का प्रमुख वैशिष्ट्य है। द्रव्य और पर्याय-सत्य के दो पहलू हैं। सत्य के इस पक्षद्वैविध्य को भारतीय चिंतकों ने विविध रूपों में देखा है। अद्वैत वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक कहा है। बौद्धों ने पर्याय को पारमार्थिक बताया है, पर द्रव्य को काल्पनिक माना है। अन्य दार्शनिक इन एकान्तिक मतों का खण्डन-मण्डन करते प्रतीत होते हैं। समन्वयवादी जैन चिंतकों ने सत्य को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त मानकर' द्रव्य तथा पर्याय-दोनों की परमार्थ सत्यता का उद्घोष किया है तथा स्वसिद्धान्त को अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिष्ठित किया है।
अनेकान्तवाद में 'अन्त' पद का अर्थ है- धर्म, अत: अनेकान्तवाद का शाब्दिक अर्थ है-वस्तु के अनेक या अनन्त धर्मो का कथन। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु, चाहे वह जीव हो या पुदगल, इन्द्रिय जगत् या आत्मादि, उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यशील है तथा नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता, भाव-अभाव जैसे विरुद्ध धर्मो से युक्त है।
जो वस्तु नित्य प्रतीत होती है, वह अनित्य भी है। जो वस्तु क्षणिक दिखाई देती है, वह नित्य भी है। जहाँ नित्यता है, वहाँ अनित्यता भी है। वस्तु में इन द्वन्द्वात्मक विरोधों की मान्यता अनेकान्तवाद है और वस्तु की अनेकान्तात्मकता का कथन स्याद्वाद है। वस्तुतः 'स्याद्वाद अनेकान्तवाद की कथन शैली है जो वस्तु के विचित्र कार्यों को क्रमशः व्यक्त करती है और विविध अपेक्षाओं से उनकी सत्यता भी स्वीकार करती है।' अनेकान्तवाद और स्याद्वाद एक दूसरे के पूरक हैं। प्रमेयफलक पर जो अनेकान्तवाद है, वही प्रमाणफलक पर स्याद्वाद है।
स्याद्वाद जैनदर्शन का एक प्राचीन तथा बहुचर्चित सिद्धान्त है। प्राचीनतम जैन ग्रंथों में इसका स्पष्ट संकेत हैं। भगवती सूत्र (1229) में इसके तीन भङ्गों