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________________ अनेकान्त-55/4 मुख फाड़कर उसे घी पिलाती है। उसी प्रकार आचार्य भी मायाचार धारण करने वाले क्षपक को जबर्दस्ती दोषों की आलोचना करने में बाध्य करते हैं। तब वह दोष कहता है, जिससे कि उसका कल्याण होता है। जिस प्रकार कि कड़वी औषधि पीने से रोगी का कल्याण होता है। लातों से शिष्यों को ताड़ते हुए भी जो शिष्य को दोषों से अलिप्त रखता है, वही गुरु हितकारी समझना चाहिए। जो पुरुष आत्महित के साथ-साथ कठोर शब्द बोलकर परहित भी साधते हैं, वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।' भगवती आराधना (488) में यह भी कहा गया है कि यतः आचार्य पर विश्वास करके ही शिष्य अपने दोष उनसे कहता हे अत: गुरु को चाहिए कि वह दोषों को अन्य के समक्ष प्रकट न करे। यदि आचार्य शिष्य के दोषों को अन्य से कहता है तो उसे जिनधर्मबाह्य कहा गया है। प्रव्रज्या धारण करने का प्रयोजन प्रव्रज्या धारण करने का मूल प्रयोजन कर्मक्षय है। कर्मक्षय सम्पूर्ण परिग्रह त्याग के बिना संभव नही है। अत: इसमें सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग आवश्यक माना गया है। निर्जन में वास भी इसीलिए आवश्यक माना गया है ताकि कर्मबन्ध के हेतु विकथाओं से तथा पशु, स्त्री, नपुंसक एवं कुशील मनुष्यों के सम्पर्क से बचा जा सके। बोधपाहुड (53-56) में कहा गया है कि प्रव्रज्या कर्मक्षय का कारण है। इसमें तिलतुष मात्र भी बाह्य परिग्रह का संग्रह नही है। उपसर्ग विजेता एवं परिषह जयी मुनिवर निर्जन स्थान में शिला, काष्ठ या भूमितल पर बैठते हैं। इसमें पशु, स्त्री, नपुंसक, कुशील मनुष्यों का संग नही किया जाता है एवं विकथायें नही की जाती हैं तथा सदा स्वाध्याय एवं ध्यान में लीन रहा जाता है। __शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णव में प्रव्रज्या धारण करने का कारण बताते हुए कहा है कि गृहस्थजन घर में रहते हुए अपने चपल मन को वश में करने में समर्थ नही होते हैं अतएव चित्त की शान्ति के लिए सत्पुरुषों ने घर में रहना छोड़ दिया है और वे एकान्त में रहकर ध्यानस्थ होने को उद्यमी हुए हैं। निरन्तर पीड़ा रूपी आर्तध्यान की अग्नि के दाह से दुर्गम, वसने के अयोग्य
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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