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________________ अनेकान्त-55/4 भी दीक्षा होती है। नियमसार (143) की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा गया है कि कलिकाल में भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादि रूप मल कीचड़ से रहित सद्धर्मरक्षाकारी मुनि होता है। जिसने परिग्रहविस्तार को त्यागा है और पाप रूपी अटवी को जलाने वाली अग्नि रूप है, वह देव लोक में देवों से भी भलीभाँति पूजित होता है। जिनसेनाचार्य ने दीक्षा के अयोग्य काल का निर्देश करते हुए लिखा है'ग्रहोपरागग्रहणे परिवेषेन्द्रचापयोः। वक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽम्बरे॥ नष्टाधिमासदिनयोः संक्रान्तौ हानिमत्तिथौ। दीक्षाविधिं मुमुक्षूणां नेच्छन्ति कृतबुद्धयः॥ महा. 39/159-60 अर्थात् जिस दिन ग्रहों का उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य चन्द्र पर परिवेष हो, इन्द्रधनुष उठा हो, दुष्ट ग्रहों का उदय हो, आकाश मेघपटल से ढका हुआ हो, नष्टमास या अधिक मास का दिन हो, संक्रान्ति हो अथवा क्षयतिथि का दिन हो उस दिन बुद्धिमान् आचार्य मुमुक्षु भक्तों के लिए दीक्षा की विधि नही करते हैं। अर्थात् ऐसी स्थिति में शिष्य को नवीन दीक्षा नही दी जाती है। दीक्षागुरु गुरु शब्द का अर्थ बड़ा है। लोक में शिक्षकों को गुरु कहा जाता है। माता-पिता को भी गुरु कहा जाता है। किन्तु धार्मिक प्रकरण में अर्हन्त भगवान को परमगुरु कहा गया है, वे त्रिलोक गुरु है। फिर आचार्य, उपाध्याय एवं साधु को गुरु माना गया है। व्रत धारण करने में गुरु की महत्ता सर्वत्र स्वीकृत है। दीक्षागुरु का लक्षण करते हुए कहा गया है कि 'यो काले प्रव्रज्या-दायक: स एव दीक्षागुरुः।' (प्रवचन सा. 290 की टीका ता. वृ.) अर्थात् लिंग धारण करते समय जो शिष्य को प्रव्रज्या देते हैं, वे आचार्य दीक्षा गुरु हैं। दीक्षा गुरु को ज्ञानी और वीतरागी होना चाहिए। भगवती आराधना (479-483) में कहा गया है कि- "जो जिसका हित चाहता है, वह उसको हित के कार्य में बलात् प्रवृत्त करता है। जैसे हित चाहने वाली माता अपने रोते हुए भी बालक का
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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