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________________ अनेकान्त-55/4 तथा काम क्रोधादि की कुवासना रूपी अंधकार से विलुप्त नेत्रों की दृष्टिवाले घरों में अनेक चिन्ता रूपी ज्वर से, विकार रूप मनुष्यों के अपनी आत्मा का हित कदापि सिद्ध नही हो सकता है। (ज्ञानार्णव 4/10, 12) ___ अतएव प्रव्रज्या धारण करना कर्मक्षय एवं आत्मकल्याण हेतु आवश्यक है। क्या दीक्षा आवश्यक है प्रायः लोग भरत चक्रवर्ती का दृष्टान्त देकर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि दिगम्बर मुद्रा धारण करने की अपेक्षा भरत चक्रवर्ती की तरह घर में विरागी रहा जा सकता है। उन्हें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि यदि प्रव्रज्या अनिवार्य न होती तो भरत चक्रवर्ती भी घर में रहते हुए ही मोक्ष प्राप्त कर लेते, परन्तु उन्हें भी प्रव्रज्या धारण करनी ही पड़ी। एतावता यह सुनिश्चित है कि कर्म मुक्ति के लिए प्रव्रज्या धारण करना अत्यन्त अनिवार्य है। दीक्षाविधि प्रव्रज्या विधि का विवेचन करते हुए महापुराण में कहा गया है कि'सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य सर्वानाहूय सम्मतान्। तत्साक्षि सूनवे सर्वं निवेद्यातो गृहं त्यजेत्॥ -महा. 38/151 अर्थात् सर्वप्रथम सिद्ध भगवान् की पूजा करके सभी इष्ट लोगों को बुलाकर उनकी साक्षी पूर्वक पुत्र के लिए सब सौंपकर गृहत्याग करना चाहिए। प्रवचनसार में कुन्दकुन्दाचार्य भी लिखते हैं 'आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहि। आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं॥' 202 अर्थात् बन्धुवर्ग से विदा मांगकर गुरूजनों, पत्नी तथा पुत्र से मुक्त होकर ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तप आचार एवं वीर्याचार को अंगीकार करे। किन्तु प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति (202) की टीका में जयसेनाचार्य बन्धुवर्ग से विदा लेने के नियम को आवश्यक नही मानते हैं। उनका कहना है कि यदि घर में कोई मिथ्यादृष्टि होता है तो वह उपसर्ग करता है। अथवा यदि कोई
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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