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जैन धर्म की प्राचीनता
अनेकान्त / 54-2
डॉ. जय कुमार जैन
विश्व के धर्मो में जैन धर्म का एक विशिष्ट स्थान है। इसकी परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यूरोप में जैन ग्रन्थों के उपलब्ध न होने के कारण यूरोपीय संस्कृतज्ञ विद्वान् विल्सन, वेबर आदि जैन धर्म को भगवान् महावीर से प्रारम्भ मानते थे। पाश्चात्य परम्परा के अन्धानुगामी कुछ भारतीय पण्डित भी ऐसा मानने की भूल कर बैठे, किन्तु धीरे-धीरे प्राच्य-पाश्चात्य विद्वानों ने अपनी भूल का सुधार किया और अब वे यह स्वीकार करने लगे हैं कि महावीर से पहले भी जैन तीर्थकर और हो चुके थे, जिनके नाम, जन्मवृत्तान्त आदि जैन साहित्य में पूर्णतया सुरक्षित हैं। इन तीर्थकरों में ऋषभदेव या वृषभदेव प्रथम हैं, इसीलिए उन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है।
भारतीय संस्कृति में अनादि काल से निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा एवं प्रवृत्तिमार्गी ब्राह्मण परम्परा एक साथ विद्यमान रही हैं। समय-समय पर दोनों में परस्पर आदान-प्रदान भी होता रहा है। इसी कारण कुछ भ्रान्तियां हुई, कुछ उलझाव भी हुआ। यहां पर जैनंतर धर्मो में उल्लिखित तथ्यों के आधार पर उन उलझनों को सुलझाने का प्रयास किया गया है और उन्हीं निष्कर्षो तक पहुंचाया गया है, जो जैन परम्परा में मान्य है।
ऋग्वेद उपलब्ध विश्व वाङ्मय में प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है, अत: ऐतिहासिक जानकारी के लिए उसकी महत्ता को नकारा नहीं जा सकता है। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में ऋषभ शब्द का उल्लेख हुआ है। यद्यपि वेद के भाष्यकारों ने इसका अर्थ तीर्थकर ऋषभदेवपरक नहीं किया है, तथापि प्राच्य-पाश्चात्य इतिहासज्ञ उन उल्लेखों में ऋषभदेव की स्तुति मानते हैं। इस सन्दर्भ में कुछ मन्त्र द्रष्टव्य हैं
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