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________________ अनेकान्त/54-2 'ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्। हन्तारं शत्रूणां कृधि विराज गोपतिं गवाम्॥ ऋग्वेद 10.166.1 'अनर्वाणं ऋषभं मन्द्र जिध्वं वृहस्पतिवर्धया नव्यमर्केः' ऋग्वेद 10.190.1 'एव बभ्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हृणीषे न हंसी।' ऋग्वेद 2.23.15 ब्राह्मण ग्रन्थों में ऋषभ को पशुपति कहा गया है। (ऋषभो वा पशूनामधिपतिः- ताण्ड्य ब्राह्मण, ऋषभो वा पशूनां प्रजापति:-शतपथ ब्राह्मणं) यहां ज्ञातव्य है कि इन्हीं ब्राह्मण ग्रन्थों में पशु का अर्थ श्री, यश, शान्ति, धन और आत्मा किया गया है। इनकी संगति ऋषभदेव के साथ समुचित घटित हो जाती है। इन्हीं आधारों पर डॉ. एस. राधाकृष्णन् जैसे मनीषियों ने यह स्वीकार किया है कि वेदों में ऋषभदेव आदि जैन तीर्थकरों के नाम आये हैं। ऋग्वेद में वातरशना मुनियों का वर्णन आया है। वातरशना का अर्थ वही है जो दिगम्बर का। क्योंकि वायु है मेखला जिनकी या दिशायें हैं वस्त्र जिनके ये दोनों ही अर्थ नग्नता रूप एक ही भाव को इंगित करते हैं। वातरशना मुनियों को मलधारी कहा गया है। ___- 'मुनयो वातरशना पिशङ्गाः वसते मलाः। ऋग्वेद 10.135.5 जैन मुनि के अस्नानव्रती होने से संभवत: ऐसा कहा गया है। वेदों में शिश्नदेव शब्द का उल्लेख भी कदाचित् जैन मुनि के लिए ही हुआ है। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में व्रात्यों का उल्लेख आया है। कर्मकाण्डी ब्राह्मण इनसे द्वेष करते थे। मनुस्मृति में लिच्छवियों को व्रात्य कहा गया है। ज्ञातव्य है कि महावीर की माता लिच्छवी गणतन्त्र के प्रधान जैन राजा चेटक की पुत्री थी। व्रात्य का अर्थ है व्रत में स्थित। ये निवृत्ति मार्गी जैन परम्परा के पूर्व पुरुष कहे जा सकते हैं। उपनिषदों में क्षत्रियों की चिन्तनधारा है। यहां पर आत्मतत्त्व का विस्तार के साथ विचार हुआ है। उपनिषदों की विचारधारा वैदिकधारा से कटी हुई सी तथा निवृत्तिमार्गी निर्ग्रन्थ जैन धारा से अत्यन्त प्रभावित प्रतीत होती है।
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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