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अनकान्त/54-2
गुरु समान दाता नहिं कोई
गुरु समान दाता नहिं कोई। भानु प्रकाश न नाशत जाको,
सो अंधियारा डारै खोई।।
मेघ समान सबनपै बरसै,
कछ इच्छा जाके नहिं होई। नरक पशुगति आगमांहितें,
सुरग मुकत मुख थापै सोई॥
तीनलोक मंदिर में जानौ,
दीपकसम परकाशक लोई। दीपतलै अंधियारा भर्यो है,
अन्तर बहिर विमल है जोई।।
तारण तरण जिहाज मुगुरु हैं,
सब कुटुम्ब डोवै जगतोई। ‘द्यानत' निशिदिन निरमल मन में,
राखो गुरुपद पंकज दोई॥
- कविवर द्यानतराय