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अनेकान्त/54-1
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आचार्य अजितसेन की दृष्टि में उपमा
- डॉ. संगीता जैन
उपमा का शाब्दिक अर्थ है - सादृश्य, समानता एवं तुल्यता आदि । 'उप सामीप्यात्मानम् इत्युपमा' अर्थात् उप और मा इन दो शब्दों के योग से बना है या माप (तौलना) । इसमें दो पदार्थो को समीप रखकर तुलना की जाती है, एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ सादृश्य स्थापित किया जाता है। उपमा सादृश्यमूलक अलंकार है । इसमें सादृश्य के कारण जो सौन्दर्यानुभूति होती है, उसी की प्रधानता है।
उपमालंकार सभी अर्थालंकारों में प्रमुख है। इसे अलंकारों का मूलभूत स्वीकार किया गया है।' संस्कृत के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में उपमा के प्रचुर उदाहरण उपलब्ध होते हैं तथा उपनिषद्, रामायण, महाभारतादि ग्रन्थों में भी इसके उदाहरण विद्यमान हैं। इस प्रकार उपमा की प्राचीनता असंदिग्ध है। उपमा का सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन यास्क कृत निरुक्त में है ।" इस प्रकार निरुक्त के प्रमाण से यह स्पष्ट है कि यास्क से पूर्व उपमा का विवेचन गार्ग्य आदि आचार्यो द्वारा हो चुका था और वेद - मन्त्रों के अर्थ में उपमा की व्याख्या की जाती थी।
आलंकारिकों ने उपमा को अत्यन्त गौरवशाली पद प्रदान किया है। सभी अर्थालंकारों में उपमा को ही प्रथम स्थान प्राप्त होता है। राजशेखर ने उपमा को अलंकारों का शिरोरत्न कहकर इसकी महिमा का बखान किया है। भरत के नाट्यशास्त्र में उल्लिखित चार अलंकारों में उपमा भी है। प्रसिद्ध आलंकारिक एवं अलंकारसर्वस्व के रचयिता राजानक रुय्यक ने उपमा को अलंकारों का 'बीजभूत' कहकर इसकी प्रशस्ति का गान किया है। रुय्यक के अनुसार इसका प्रधान कारण उपमा का अनेक प्रकार से वैचित्र्यपूर्ण होना ही है।
आचार्य अजितसेन ने सर्वप्रथम अनेक अलंकारों का कारण होने से उपमा का लक्षण कहा है। उन्होंने उपमा की परिभाषा देते हुए कहा है
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