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अनेकान्त/54-1
विशुद्धपरिणामेन भक्तिः किं न फलिष्यति॥6/1100
और दहत्यधिकमन्यस्मिन् माननीयविमानता।।6/138॥ संस्काराः प्राक्तनां नूनं प्रेरयन्त्यङ्गिनो हिते॥9/97।। प्रायः श्रेयोऽर्थिनो बुधाः॥15॥ विद्या यशस्करी पुंसां विद्या श्रेयस्करी मता। सभ्यगाराधिता विद्यादेवता कामदायिनी।।16/99॥ न तत्सुखं परद्रव्यसंबन्धादुपजायते। नित्यमव्ययमक्षय्यमात्मोत्थं हि परं शिवम्।।21/209॥
इस प्रकार आदिपुराण की सम्पूर्ण भाषा के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि जहाँ भाषा का उद्देश्य केवल कुल परम्परा आदि के तथ्यों को कहना है, उसकी सरणि को बताना है, वहाँ आदिपुराण इतिहास है; जहाँ शाश्वत सत्यों को उद्घाटना करनी है वहाँ सूक्तभाषा है और जहाँ धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों को रखना है वहाँ कविता कामिनी की तरह व्यंग्य प्रधान भाषा न रखकर साक्षात् विषयोन्मुखी अभिधाधर्मी धार्मशास्त्रीय भाषा गढ़ी है रचनाकार ने। जिसे दूसरे रूप में कहा जा सकता है कि आदिपुराण की भाषा विषयानुगामिनी या यूँ कहें कि परिस्थित्यानुगामिनी है। उसे जहाँ आवश्यकता है वहाँ वह श्लिष्टपदावली से संयुक्त है, जहाँ विरल शब्दों की अपेक्षा है वहाँ वह स्फुट पदरूप है, जहाँ आलंकारिकता की अपेक्षा है वहाँ अलंकारमयी और रसमयी भी। कुल मिलाकर प्रयोजनवती भाषा है आदिपुराण की, इसलिए उसे सामान्य भाषा के मापकों के आधार पर नहीं तौला जाना चाहिए। सामान्य भाषागत विशेषताओं के सन्दर्भ में आदिपुराण पर दृष्टि डालें तो सन्नन्त प्रक्रिया, नामधातु प्रक्रिया का प्रचुर प्रयोग इनकी भाषा में मिलता है, पर है वह सार्थ ही। यथा-धर्मारामतरूयन्ते (2/15); सार्थवाहायते (2/19) आदि अनेक प्रयोग।
निदेशक-हिन्दी व्याकरण इकाई महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
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