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अनेकान्त / 54-1 CICIC
कायचैतन्ययोर्नैक्यं विरोधिगुणयोगतः ।
तयोरन्तर्बहीरूपनिर्भासाच्चासिकोशवत्॥5/52।।
शरीर और आत्मा का संबन्ध ऐसा है, जैसे घर और दीपक का; आधर और आधेय रूप होने से घर और दीपक पृथक्-पृथक् है, उसी प्रकार आत्मा और शरीर भी । यथा
गृहीप्रदीपयोर्यद्वत् सम्बन्धो युतसिद्धयोः । आधाराधेयरूपत्वात् तद्वद्देहोपयोगयो : 115/ 55॥
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ऐसा नहीं कि आदिपुराण की भाषा ने केवल धर्म, दर्शन और वैराग्य को अपने में समेटा है बल्कि श्रृंगार का उत्कृष्ट वर्णन भी हमें इसमें देखने को मिलता है । यथा
लतेवासौ मृदू बाहू दधौ विटपसच्छवी । नखांशुमंजरी चास्या धत्ते स्म कुसुमश्रियम् 116 / 701 आनीलचूचुकौ तस्याः कुचकुम्भौ विरेजतुः । पूर्णां कामरसस्येव नीलरत्नाभिमुद्रितौ ॥6 / 71 स्तनांशुकं शुक्च्छायं तस्याः स्तनतटाश्रितम् । बभासे रुद्धपड्केजकुट्मलं शैवलं यथा ॥16 / 7211 हारस्तस्याः स्तनोपान्ते नीहाररुचिनिर्मलः । श्रियमाधत्त फेनस्थ कञ्जकुट्मलसंस्पृशः ॥16 / 731 ग्रीवास्या राजिभिर्भेजे कम्बुबन्धुरविभ्रमम् । स्त्रस्तावंसौ च हंसीव पक्षती सा दधे शुची ॥16/74॥ मुखमस्या दधे चन्द्रपद्मयोः श्रियमक्रमात् । नेत्रानन्दि स्मितज्योत्स्नं स्फुरद्दन्ताशुकेशरम् ॥16/751 स्वकलावृद्धिहानिभ्यां चिरं चान्द्रायणं तपः । कृत्वा नूनं शशी प्रापत् तद्वक्त्रस्योपमानताम् ॥6/76। कर्णौ सहोत्पलौ तस्या नेत्राभ्यां लङ्घतौ भृशम्। स्वायत्यारोधिनं को वा सहेतोपान्तवर्त्तिनम् ॥16/77॥
सूक्तों की भाषा में जिनसेनाचार्य ने बड़े दुरूह से दुरूह विषयों के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंशों के रूप में अनन्तभाव को बड़े सहज ही व्यक्त कर दिया है, लगता है मानों गागर में सागर भर दिया हो। यथा