________________
अनेकान्त/54-1
41
सर्वघाति और देशघाति कर्म प्रकृतियाँ-एक चिन्तन
- डॉ. श्रेयांस कुमार जैन जैनागम में कर्म सिद्धान्त का विस्तार पूर्वक प्रतिपादन है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसागर कर्मकाण्ड नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ के माध्यम से कर्म का स्वरूप, कर्म की मूल एवं उत्तर प्रकृतियां, कर्म की विविध अवस्थाएं, कर्म फल, जीव और कर्म के सम्बन्ध आदि विषयों का विस्तार के साथ वर्णन किया है। इसी के आधार पर कर्म के वैशिष्ट्य के साथ जीव के स्वभाव को प्रगट न होने देने वाली कर्म की शक्ति पर विचार किया है। इसी के आधार पर कर्म के वैशिष्ट्य के साथ जीव के स्वभाव को प्रगट न होने देने वाली कर्म की शक्ति पर विचार किया जा रहा है।
जीव के साथ बन्धने वाले विशेष जाति के पुद्गल स्कन्ध कर्म है। ये सूक्ष्म जड़रूप होते हैं। जीव के प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं। यह अनादि परम्परा है। अर्थात् जीव और कर्म का खान से निकले स्वर्ण पाषाण की भांति अनादि सम्बन्ध है अथवा जैसे बीज और अंकुर की सन्तान परम्परा अनादि है उसी प्रकार जीव और कर्म की परम्परा अनादि है', किन्तु अनादि के साथ साथ सान्त और अनन्त भी है, जिस प्रकार बीज को अग्नि में जला दिया जाय तो उस बीज से अंकरोत्पति असंभव है उसी प्रकार भव्य जीव साधना के माध्यम से कर्मो को आत्मा से पृथक् कर देता है तो वह पुनः कर्मबद्धता को प्राप्त नहीं होता। अभव्य जीव की अपेक्षा कर्म का सम्बन्ध अनादि अनन्त है, क्योंकि वह कर्म को अपने से कभी भी पृथक् नहीं कर सकता है।
संसार अवस्था में तो प्रतिक्षण सभी जीव कर्मों तथा नो कर्मों को ग्रहण करते हैं जैसा कि कहा है -"जीव औदारिक आदि शरीर नामकर्म के उदय से योग सहित होकर प्रतिसमय कर्म-नोकर्म वर्गणा को सर्वांग से Sacsc00000000cacacasseDECORRORace