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अनेकान्त / 54-1
प्रसाद आदि गुण जिसकी उन्नत शाखाएँ हैं और उत्तम शब्द ही जिसके उज्जवल पत्ते हैं - ऐसा यह महाकविरूपी वृक्ष यशरूपी पुष्पमंजरी को धारण करता है अथवा बुद्धि ही जिसके किनारे हैं, प्रसाद आदि गुण ही जिसमें लहरें हैं, जो गुणरूपी रत्नों से भरा हुआ है, जो उच्च और मनोहर शब्दों से युक्त है तथा जिसमें गुरु-शिष्य परम्परा रूप विशाल प्रवाह चला आ रहा है-ऐसा यह महाकवि समुद्र के समान आचरण करता है । यथाप्रज्ञामूलो गुणोदग्रस्कन्धो वाक्पल्लवोज्ज्वलः महाकवितरुर्धत्ते यशः कुसुममंजरीम्।।1 / 1031 प्रज्ञावेलः प्रसादोर्मिर्गुणरत्नपरिग्रहः महाध्वानः पृथुस्रोताः कविरम्भोनिधीयते ।।1/104॥ यथोक्तमुपयुंजीध्वं बुधाः काव्यरसायनम् । येन कल्पान्तरस्थायि वपुर्वः स्याद् यशोमयम् ||1 / 10511 यशोधनं चिचीर्पूणां पुण्यपुण्यपणायिनाम् ।
परं मूल्यमिहाम्नातं काव्यं धर्मकथामयम् ||1 / 1061
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महाकान्तिमान् महाराज वज्रबाहु एक दिन अपने ही राजमहल की अट्टालिका पर बैठे हैं, पुत्र वज्रजंघ आनी नवविवाहिता पत्नी श्रीमती के साथ रमण में लीन है, अचानक महाराज की दृष्टि जाती है शरद् ऋतु के उठते बादल पर.. बादल का उत्थान इतना मनोहर है कि महाराज के रोम-रोम को पुलकित कर देता है और घेर लेता है महाराज को ही नहीं, बल्कि उनके सम्पूर्ण राजप्रासाद को, महाराज यह देख ही रहे हैं, वे उसकी सुन्दरता से अपने मन को अभी भर भी नहीं पाए हैं कि बादल क्षण भर में ही विलीन हो जाता है और उस बादल का विलीन होना महाराज को भीतर तक झकझोर देता है और उन्हें सहज वैराग्य की ओर उन्मुख कर देता है, बड़ा मार्मिक है दृश्य, बड़ी तुली हुई, मंजी हुई, सधी हुई भाषा है दृश्य की, एक-एक शब्द, एक-एक ध्वनि ऐसे बँधे हैं कि दृश्य के कोर कोर का प्रत्यक्ष कराना चाहते हैं अपने पाठक को । यथाअथान्येद्युर्महाराज वज्रबाहुर्महाद्युतिः ।
वे
शरदम्बुधारोत्थानं सौधाग्रस्थे निरूपयन् ॥18 /5011
दृष्ट्वा तद्विलयं सद्यो निर्वेदं परमागतः ।
विरक्तस्यास्य चित्तेऽभूदिति चिन्ता गरीयसी ॥18 /51॥
COCOCOCO
Dacacaca