________________
28
अनेकान्त/54-1 cacacacaracaescarcaSacsCOCOCOGICICS जिनसेन ने स्वयं किन अभिलक्षणों को काव्यभाषा के मापक के रूप में स्वीकारा है। द्रष्टव्य हैं-प्रथम पर्व के निम्नांकित श्लोक
कवेर्भावोऽथवा कर्म काव्यं तज्ज्ञैर्निरुच्यते। तत्प्रतीतार्थमग्राम्यं सालंकारमनाकुलम्। केचिदर्थस्य सौन्दर्यमपरे पदसौष्ठवम्। वाचालमलंक्रियां प्राहुस्तद्वयं नो मतं मतम्। सालंकारमुपारूढ़रसमुद्भूतसौष्ठवम्। अनुच्छिष्टं सतां काव्यं सरस्वत्या मुखायते।।1/94-96।।
आचार्य जिनसेन कहते हैं कि कवि का भाव या कार्य काव्य है। यह भाव या कार्य वस्तुतः भाषारूप होता है, इसलिए कवि की भाषा ही काव्य होती है। वे आगे मानते हैं कि कवि का काव्य या उसकी भाषा सर्वसम्मत अर्थ से सहित अर्थात् प्रतीकार्थवाचक, ग्राम्य दोष से रहित, अलंकारों से युक्त और प्रसाद आदि गुणों से शोभित अर्थात् अनाकुल होनी चाहिए। काव्यशास्त्री मम्मट की तरह वे भी उल्लिखित करते हैं कि कितने ही विद्वान् अर्थ की सुन्दरता को वाणी का अलंकार कहते हैं और कितने ही पदों की सुन्दरता को, किन्तु उनका मत है कि अर्थ और पद दोनों की सुन्दरता ही वाणी का अलंकार है। सज्जन पुरुषों का बनाया हुआ जो काव्य अलंकार सहित, श्रृंगारादि रसों सं युक्त, सौन्दर्य से ओत-प्रोत और उच्छिष्टता रहित अर्थात् मौलिक होता है, वह काव्य सरस्वती देवी के मुख के समान शोभायमान होता है। जिस प्रकार शरीर में मुख सर्वप्रधान अंग है, इसके बिना शरीर की शोभा नहीं; ठीक उसी प्रकार सभी शास्त्रों में काव्य प्रधान है, यह है-आचार्य जिनसेन की काव्यभाषा की कसौटी। वस्तुत: है भी यही, इसीलिए तो काव्य में न केवल संरचना ही प्रधान है और न काव्यार्थ ही, दोनों की सम्यक्युति ही काव्य है और वही काव्यभाषा का निर्माण करती है। बात इतनी ही नहीं, ये भी कविता को स्फुट काव्य, प्रबन्ध काव्य, महाकाव्य के भेद के रूप में मानते हैं, और कहते हैं कि जिस प्रकार महावृक्षों की छाया से मार्ग की थकावट दूर हो जाती है और चित्त हल्का हो जाता है, उसी प्रकार महाकवियों की काव्यभाषा के परिशीलन से अर्थाभाव से होने वाली खिन्नता दूर हो जाती है और चित्त प्रसन्न हो जाता है। प्रतिभा जिसकी जड़ है, माधुर्य, ओज,