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अनेकान्त/54-1 Decos Cececececececececcocececececo कहलाएगी और उसकी भाषा काव्यभाषा? यदि इसका उत्तर 'हाँ' में मान लिया जाए तो सारे धर्मशास्त्र, सारे दार्शनिक ग्रंथ, सारे कारिका ग्रंथ व सारे शास्त्र काव्य की कोटि में आने लग जाएंगे और इस प्रकार अतिव्याप्ति हो जाएगी, इसलिए कंवल छंदोबद्ध भाषा के आधार पर आदिपुराण को काव्य मानना समीचीन नहीं लगता।
कि काव्य होने के बहुत सारे अभिलक्षणों में से छंदोबद्धता भी एक अभिलक्षण तो है ही, अत: काव्यभाषा के अन्य अभिलक्षणों को आदिपुराण की भाषा में तलाशा जाना चाहिए और तब निर्णय किया जाना चाहिए कि यह काव्य है या नहीं? ....... अब प्रश्न उठता है कि काव्य होने के या काव्यभापा होने के अन्य अभिलक्षण क्या हैं? वस्तुतः ध्यान से देखा जाए तो इस बिन्दु पर भी हमें अनेक मत देखने को मिलते हैं, इसलिए यह आवश्यक है कि पहले काव्यत्व के/काव्यभाषात्व के मानकों को स्थिर किया जाए और फिर उनके आधार पर आदिपुराण की काव्यभाषा का परीक्षण किया जाए : लेकिन यह भी आसान नहीं है, इसीलिए तो आचार्य जिनसेन स्वयं कहते हैं कि -
केचित् सौशब्द्यमिच्छन्ति केचिदर्थस्य संपदम्। केचित् समासभूयस्त्वं परे व्यस्ता पदावलीम्॥/78॥ मृदुबन्धार्थिनः केचित् स्फुटबन्धैषिणः परम्। मध्यमा केचिदन्येषां रुचिरन्यैव लक्ष्यते।।1/79॥ इति भिन्नाभिसन्धित्वाददराराधा मनीषिणः॥1/801
अर्थात् कोई शब्दों की सुन्दरता को पसन्द करते हैं. कोई मनोहर अर्थसम्पत्ति को चाहते हैं, कोई समास की अधिकता को अच्छा मानते हैं और कोई मृदुल-सरल रचना को उत्कृष्ट मानते हैं, कोई कठिन रचना को चाहते हैं, कोई मध्यम श्रेणी की रचना पसन्द करते हैं और कोई ऐसे भी हैं, जिनकी रुचि सबसे विलक्षण अनोखी है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न होने के कारण बुद्धिमान् पुरुषों को प्रसन्न करना कठिन कार्य है, जाकि वस्तुतः काव्यभाषा का प्रयोजन है।
मुझे लगता है कि उपर्युक्त भिन्न-भिन्न मान्यताओं के कारण काव्यभाषा के मापकों के निर्धारण में आवश्यक है कि हम यह देखें कि आचार्य