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अनेकान्त/54-1 CamacaeeacOCOGEScacacOCOCOLOGORIES
पश्य नः पश्यतामेव कथमेष शरद्धनः। प्रासादाकृतिरुद्भूतो विलीनश्च क्षणान्तरे॥8/52॥ संपदभ्रविलायं नः क्षणादेषां विलास्यते। लक्ष्मीस्तडिविलोलेयं इत्वर्यो यौवनश्रियः।।8/53।। आपातमात्ररम्याश्च भोगाः पर्यन्ततापिनः। प्रतिरक्षणं गलत्यायुर्गलन्नालिजलं यथा।।8/54॥ रूपमारोग्यमैवमिष्टबनधासमागमः। प्रियाङ्गनारतिश्चेति सर्वमप्यनवरिथतम्॥8/55॥
इन छन्दों की भाषा के शब्दों को महाकवि कई स्रोतों से लेते हैं। हम श्लोक 54 के प्रथम "आपात" शब्द की बात करते हैं, अमरकोशकार ने इसे नहीं संजोया, पर भाषा में बहुप्रचलित है, इसलिए विश्वलोचनकोशकार से यह नहीं छूटता और नहीं छूटता महाकवि जिनसेन से भी क्योंकि सर्वसम्मत अर्थ के वाहक शब्दों को संजोना है न उन्हें अपनी काव्यभाषा में। कविवर जिनसेन संसार के जनों की स्थिति पर सटीक टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि जबकि सज्जनों का धन गुण है और दुर्जनों का धन दोप, तब फिर उन्हें अपना-अपना धन ग्रहण कर लेने देने में भला कौन बुद्धिमान् पुरुष बाधक होगा? इसी क्रम में वे अपने काव्यरूप के सन्दर्भ में कहते हैं कि दुर्जन पुरुष हमारे काव्य से दोषों को ग्रहण कर लें, जिससे हमारे काव्य में गुण-गुण ही रह जायें-यह बात हमको अत्यन्त इष्ट है क्योंकि जिस काव्य से समस्त दोष निकाल दिये गए हों, वह काव्य निर्दोष होकर उत्तम हो जायेगा। प्रकारान्तर से उनकी मान्यता है कि उत्तम काव्यभाषा सज्जनचित्तवल्लभ होती है।
यतो गुणधनाः सन्तो दुर्जना दोषवित्तकाः। स्वधनं गृह्वतां तेषां कः प्रत्यर्थी बुधो जनः1/84॥ दोषान् गृह्णन्तु वा कामं गुणास्तिष्ठन्तु नः स्फुटम्। गृहीतदोषं यत्काव्यं जायते तद्धि पुष्कलम्।।1/85॥
आगे कविवर जिनसेन रचनाकार की रचना प्रक्रिया या यूँ कहें काव्यभाषा के गढ़ने की प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि कोई भी रचनाकार किसी भी भाषा का क्यों न हो, उसके सम्मुख अनन्त मौलिक प्रयोगरूप अनंत शब्दराशि होती है, उस अनंत शब्दराशि के