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________________ अनेकान्त/54-1 23 यह मानना पड़ जाएगा कि वे असंख्य सिद्ध आत्माएं जगह के लिए आपस में कशमकश कर रही हैं। 6. चूंकि कखगघ जगह सीमाओं से बंधी है इसलिए आत्माएं वहां पर अनंत शायद नहीं कही जा सकती। हां, अनगिनत अवश्य हैं। हालांकि यह भी सही है कि सिद्ध आत्माओं का यहां आना अनादि है, अनंत काल तक यह क्रम चलता भी रहेगा। बेनाड़ा जी का एक तर्क यह भी है कि अर्द्धचन्द्राकार शिला पर कोई बैठ नहीं सकता। इस का समाधान भी प्रतीक - से हो जाता है। इसके अलावा मोक्ष स्थान में बैठने खड़े होने का सवाल ही कहां पैदा होता है। यदि है, तो उनके प्रतीक ¢ में तो यह और भी मुश्किल है। 7. तो पहली बात तो यह कि सिद्ध क्षेत्र में कोई सिद्ध शिला नाम की शिला नहीं है। सिद्धलोक के लिए शब्द सिद्ध शिला का प्रयोग भ्रम पैदा करता है तथा शास्त्र विपरीत है और बंद होना चाहिए। 8. दूसरी बात है उत्तान शब्द के अर्थ को लेकर। तिलोयपण्णत्ति व त्रिलोकसार दोनों ही प्राकृत के ग्रंथ हैं और प्राकृत शब्द महार्णव में उत्तान का अर्थ उर्ध्वमुख है जिससे नतीजा निकलेगा कि उल्टा छत्र अथवा सीधी कटोरी-सीधा छत्र व उल्टी कटोरी उर्ध्वमुख नहीं होते। सिद्धान्तसार में इसे उत्तान अर्द्ध गोले के समान बताया गया है उससे मतलब है कि पहले गोले को आधा काटिए, तो फिर उर्ध्वमुख एक आधा हिस्सा गोला क्या ऐसा नहीं होगा मानों उल्टा छत्र हो। मोनियर विलियम्स के संस्कृत कोष पृ. 177 कालम 2 में भी उत्तान का अर्थ उर्ध्वमुख लेटा हुआ, वर्तन को ऐसे रखा जाए कि मुंह ऊपर हो ऐसा दिया हुआ है और भला इसके अलावा अर्द्धचन्द्राकार क्या होता है? 9. जब भगवान् वृषभ देव को श्रेयांस कुमार ने हस्तिनापुर में जो ईक्षु का आहार समर्पित किया था उसका वर्णन जिनसेन ने आदिपुराण में इस प्रकार किया है। श्रेयान् सोमप्रभेणामा लक्ष्मी मत्या च सादरात्। रसभिक्षोरदात् प्रासु (क) मुत्तानी कृतपाणये॥ -20/100
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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