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अनेकान्त/54-1
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जिन्होंने अपने दोनों हाथ उत्तान किए थे अर्थात् हाथों को सीधा मिलाकर अंजली (खोवा) बनाई थी ऐसे भगवान् वृषभ देव के लिए श्रेयांस कुमार ने राजा सोमप्रभ व रानी लक्ष्मीमती के साथ आदर पूर्वक ईक्षु के प्रासुक रस का आहार दिया था। मेरे विचार से अब उत्तान शब्द के अर्थ में कोई शंका शेष नहीं रहती। आहार के समय की हाथों की यह स्थिति उर्ध्वमुख ही तो कही जाएगी।
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10. फिर भी, प्रतीक तो प्रतीक है; È य र ल में से कोई भी चलेगा। पूजा में भावों का महत्व है कि न प्रतीकों का। जिस तरह, तरह-तरह की मूर्तियों को साक्षात् भगवान मानकर पूजा - याचना की जाती है, वैसे ही प्रचलित प्रतीक को सही मानकर पूजा करने में मूल शास्त्रों का कोई उल्लंघन नहीं है, अतः मेरा खयाल है कि इस प्रकार की बहस ही व्यर्थ है, लक्ष्य से डिगाने वाली है। शायद यही कारण है कि उमा (स्वाति) व वट्टकेर ने सिद्ध लोक के क्षेत्रफल आकार आदि का कोई ज़िकर नहीं किया। ऐसी सूरत में स्वर्ग मोक्ष के बारे में श्री सुखमाल चंद जी ने जो विवेचन शोधादर्श 34/56-63 पृ. ( व 38 / 160-161) पर किया है वह बड़ा ही समुचित ठहरता है। मूलाचार 7/44 में वर्णित लोक के नौ भेदों में से एक भाव लोक है याने रागद्वेष भावों के उदय को ही भाव लोक कहते हैं । मुक्ति हो जाने पर ( भक्तों के इलावा) किस सिद्ध आत्मा को फ़िकर है कि उसके अनंत कालीन निवास का क्षेत्रफल कितना है और उसका आकार-प्रकार कैसा है। कई बातों में कुछ नवीन करने की इच्छा से बेहतर है कि पुरातन परम्परा व प्रतीक को ही चलते रहने दिया जाए। ऐसा न हो कि कहीं भक्त जन बिना काकूल वजह सीधा छत्र या सीधी कटोरी में उलझकर दो नए पंथों में बंट जाएं।
जो समझ में आया निवेदन कर दिया। भूलचूक माफ़ कर, जानकार महानुभाव मुझ अज्ञानी के इस निवेदन पर भी विचार करने की अनुकम्पा करें और स्थिति को साफ़ कर दुविधा का अंत करें ।
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