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अनेकान्त/54/3-4
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और दया वाले पुरुषों के ही सम्पूर्ण गुण सिद्धि देने वाले होते हैं। जिनगृह के मध्य हंसी श्रृंगारादि चेष्टा को, चित्त को कलुषित करने वाली कथाओं को, कलह को, निद्रा को, थूकने को तथा चार प्रकार के आहार को छोड़ें। पूजादि क्रियाओं के अनन्तर हिताहित विचारक श्रावक द्रव्यादि के उपार्जन योग्य दुकानादि में जाकर अर्थोपार्जन में नियुक्त पुरुषों की देखभाल करे अथवा ध के अविरुद्ध स्वतः व्यवसाय करे।
यह श्रावक पुरुषार्थ के निष्फल, अल्पफल तथा विपरीत फल वाला हो जाने पर भी न विषाद करे तथा लाभ हो जाने पर हर्षित भी न हो; क्योंकि सब भाग्य की लीला है। मेरे लिए वह मुनि के समान वृत्ति कब होगी, इस प्रकार भावना करता हुआ जैसा भी व्यापार में लाभ हुआ, उससे सन्तुष्ट होता हुआ शरीर की स्थिति के लिए उठे । श्रावक को अपने ग्रहण किए हुए सम्यक्त्व तथा व्रतों का घात न करते हुए मूल्य देकर लाए हुए जल, दूध, दही, धान्य, लकड़ी, शाक, फूल, कपड़ा आदि के द्वारा अल्प पाप हो, ऐसी स्वास्थ्यानुवृत्ति करनी चाहिए । निर्वाह के प्रयोजन से साधर्मी भाईयों के भी घर में तथा विवाहादिक में भी भोजन करने वाला यह व्रती श्रावक रात्रि में बनाए हुए भोजन को छोड़े और हीन पुरुषों के साथ व्यवहार न करे।
वह व्रती श्रावक उद्यान में भोजन करना, प्राणियों को परस्पर लड़ाना, फूलो को तोड़ना, जलक्रीड़ा, झूले में झूलना आदि क्रिया को छोड़ दे तथा इनके समान हिंसा की कारणभूत दूसरी क्रियाओं को भी छोड़ दे। मध्याह्न काल में दोषानुसार किया है स्नान जिसने ऐसा और धुले हुए दो वस्त्र को धारण करने वाला वह श्रावक पापों का नाश करने के लिए आकुलता रहित होता हुआ देवाधिदेव की आराधना करे अर्थात् माध्याह्निक सामायिक करे। अभिषेक करने की प्रतिज्ञा करके जहां पर भगवान् का अभिषेक करना है। वहां की भूमि की शुद्धि करके चतुष्कुंभ से युक्त है कोण जिनकी ऐसी तथा कुश रखा हुआ है ऐसी पीठिका पर अर्थात् सिंहासन पर जिनेन्द्र भगवान् को स्थापित करके आरती उतार कर इष्ट दिशा में दिशा में स्थित होकर जल, फलरस, घृत, दुग्ध, दधि के द्वारा अभिषेक करके किया है, उद्धर्तन जिसने अर्थात् चन्दन का अनुलेपन करके चारों कोण के कलशों से तथा सुगन्धित जल से अभिषेक करे