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________________ अनेकान्त/54/3-4 99 भगवान् की जल गंधादि अष्ट प्रकार की पूजा करके देव-वन्दना करे। अवश्य करने योग्य कार्यों की निवृत्ति हो जाने के बाद शान्तिभक्ति बोलकर अपनी शक्ति के अनुसार भोगोपभोग सामग्री का नियम करके भगवान् पुनः दर्शन मिले, समाधिमरण हो ऐसी प्रार्थना करके जाने के लिए प्रभु को नमस्कार करे। समता परिणाम रूपी अमृत के द्वारा विशुद्ध हुए अन्तरात्मा में विराजमान है परमात्मा की मूर्ति जिसके ऐसा श्रावक ऐश्वर्य और दरिद्रपना पूर्वोपार्जित कर्मानुसार होते हैं ऐसा विचार करता हुआ जिनालय जावे। अपनी शक्ति के अनुसार भगवान् की पूजा सामग्री को लेकर चार हाथ जमीन देखकर जाता हुआ देशव्रती श्रावक मुनि के समान आचरण करता है। जिनेन्द्र भगवान् के मन्दिर के मस्तक पर लगी ध्वजा के देखने से उत्पन्न हुआ आनन्द बहिरात्मा प्राणियों की मोहनिद्रा को दूर करने वाले श्रावक के पाप को नाश करने वाला होता है। नाना प्रकार के तथा आश्चर्य को पैदा करने वाले वादित्र तथा स्वाध्यायादिक शब्द से माला, धूपपूर्ण आदि गन्ध से तथा द्वारतोरण और शिखर पर बने हुए चित्रों द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुआ है, धर्माचरण सम्बन्धी उत्साह जिसको, ऐसा श्रावक नि:सही इस शब्द का उच्चारण करता हुआ उस मन्दिर में प्रवेश करे। क्षालित किया है पैर जिसने, आनन्द से व्याप्त है सर्वांग जिसका, ऐसा श्रावक नि:सही इस वाक्य का उच्चारण करता हुआ जिनभवन के मध्य प्रदेश में प्रवेश करके जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार कर पुण्य के आस्रव को करने वाली स्तुतियों को पढ़ता हुआ तीन बार प्रदक्षिणा करे। यही आगम में प्रसिद्ध समवसरण है। यह प्रतिमार्पित जिनेन्द्र भगवान् ही साक्षात् जिनराज हैं, यह आराधक भव्य वे ही आगम प्रसिद्ध सभसद हैं, इस प्रकार चिन्तन करता हुआ श्रावक उस चैत्यालय में प्रदक्षिणा करते समय बार-बार ध र्मिक पुरुषों की प्रशंसा करे। इसके बाद ईर्यापथ शुद्धि करके जिनेन्द्र भगवान् की, शास्त्र की और आचार्य की पूजा करके आचार्य के सामने गृह चैत्यालय में ग्रहण किए नियम को प्रकाशित करे। इसके बाद यह श्रावक यथायोग्य सम्पूर्ण जिनभगवान की आराधना करने वाले भव्य जीवों को प्रसन्न करे तथा अरहन्त भगवान् के वचनों को व्याख्यान करने वालों को तथा पढ़ने वालों को बार-बार प्रोत्साहित करे। इसके बाद वह श्रावक विधिपूर्वक स्वाध्याय करे और विपत्रि से आक्रान्त दीन पुरुषों को विपत्ति से छुडावे; क्योंकि परिपक्व ज्ञान
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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