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अनेकान्त/54/3-4
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तथा जलचन्दनादिक अष्टद्रव्य से पूजा करके और नित्य वन्दनादि विधि से नमस्कार करके करे अपने हृदय में भगवान को विराजमान करके अपनी शक्ति अनुसार भगवान् का ध्यान करे। इसके बाद वह श्रावक सच्चे गुरु के उपदेश से सिद्धचक्र पार्श्वनाथ यंत्रादि की और शास्त्र की तथा गुरुचरणों की पूजा करे क्योंकि कल्याण कार्यों में कौन तृप्त होता है। इसके बाद अपनी शक्ति और भक्ति के अनुसार मुनि आर्यिकादिक पात्रों को तथा सर्व अपने आश्रितों को सन्तुष्ट करके काल में जिससे अजीर्ण आदि न हो ऐसा अपनी प्रकृति के अविरुद्ध भोजन करे। वह श्रावक इसलोक और परलोक का विरोध नहीं करने वाले द्रव्यों को सदा सेवन करे । व्याधि की उत्पत्ति न होने देने में तथा उत्पन्न हो गई हो तो उसके नाश करने के लिए प्रयत्न करे; क्योंकि वह व्याधि ही संयम का घात करने वाली है। भोजन करने के बाद श्रावक थोड़ी देर विश्रांति लेकर गुरु, सहपाठी और अपना चाहने वालों के साथ जिनागम के रहस्य का विनयपूर्वक विचार करे !
सन्ध्याकालीन आवश्यक कर्मो को करके देव और गुरु का स्मरण कर वह श्रावक उचित समय में थोड़ी देर शयन करे तथा अपनी शक्ति अनुसार मैथुन को छोड़ दे। वह श्रावक रात्रि में निद्रा के भंग हो जाने पर फिर वैराग्य के द्वारा श्री तत्क्षण मन को संस्कृत करे; क्योंकि भली प्रकार अभ्यास किया हुआ वैराग्य का जिसने ऐसा आत्मा शीघ्र ही प्रशम सुख का अनुभव करता है। बड़े दुःख की बात है कि दुःख ही है लहरें जिसमें ऐसे संसार रूपी समुद्र में मोह से शरीर को आत्मबुद्धि से निश्चय करने वाले मैंने यह आत्मा बार - बार अनादि काल से कर्मों से बन्धित किया है। इसलिए इस मोह को ही लष्ट करने क लिए मैं सदैव प्रयत्न करता हूं। क्योंकि उस मोह के नष्ट हो जाने पर क्षीण हो गए हैं राग द्वेष जिसके ऐसी यह आत्मा स्वयमेव कर्मों से छूट जाती है।
पुण्य-पाप कर्म के विपाक से शरीर होता है। शरीर में इन्द्रियां होती हैं और इन इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है और स्पर्शादि विषय को ग्रहण करने से पुनः बन्ध होता है। इसलिए मैं इस बन्ध के कारणभूत विषयग्रहण को मूल से नाश करता हूँ । ज्ञानियों की संगीत तप और ध्यान के द्वारा भी जो असाध्य है अर्थात वश में नहीं किया जाने वाला काम शत्रु शरीर और आत्मा का