________________
अनेकान्त/54-1
मल्लिनाथ के निर्वाण का वर्णन उत्तर पुराण 66/62 में यों हैफाल्गुणो ज्जवल पंचम्यां तनुवातं समाश्रयत्
फाल्गुन सुदी पंचमी के दिन तनुवात (वलय) में स्थान ग्रहण कर लिया। यहां भी सिद्ध शिला का जिकर नहीं है। 3. तिलोयपण्णत्ति 8/657, त्रिलोकसार गाथा 557 में 'शिला' का प्रयोग नहीं है, 'क्षेत्र' का प्रयोग है यह भ्रम शायद इसलिए पैदा हुआ है कि तीर्थंकरों का जन्माभिषेक, दीक्षा व ज्ञान आदि कल्याणक बहुधा शिलाओं पर ही हुए हैं। 4. सिद्ध क्षेत्र तो मध्य लोक में अनेक हैं कई तीर्थस्थल कहे जाते हैं पर स्वर्गो के अंतिम छोर के बाद कोई सिद्ध लोक स्थित है, जहां आत्माएं निवास करती हैं। यह तीन लोक के अग्रभाग में वर्तुला कार 45 लाख योजन लम्बा व 12 योजन चौड़ा बताया जाता है वीर वर्धमान चरित 11/109। इस सिद्ध लोक/सिद्धक्षेत्र के विषय में तिलोयपण्णत्ति में बताया है कि यह आठवीं पृथ्वी धनोदधिवात, घनवात और तनुवात इस तीन वायुओं से युक्त है। इसके मध्य भाग में चांदी व सुवर्ण के सदृश और नाना रत्नों से परिपूर्ण ईषत्प्रारभार क्षेत्र है -
एदाए बहु मञ्झे खेत्तं णामेण ईसिपब्भारं अजुण्ण सवण्ण सरिसं णाणारयणेहि परिपुण्णं। ति.प. 8/556
तिलोय पण्णत्ति (9/3) के अनुसार पृथ्वी के ऊपर 7050 धनुष जाकर सिद्धों का आवास है। यहां पर -
जावदं गंदव्वं तावं गंतूण लोय सिहरम्भि। चेट्ठति सव्व सिद्धा पुह पुह गयसित्थमूसगब्भणिहा। 9-14
जितना जाने योग्य है उतना जाकर लोक शिखर पर सब सिद्ध पृथक् पृथक् मोम से रहित मूषक के अभ्यन्तर आकाश के (याने चूहे के पेट के) सदृश स्थित हो जाते हैं। (चूहे से तुलना करना कुछ अजीब तो लग रहा है।)
इस सब का सार यह जान पड़ता है कि तनुवात वलय के मध्यभाग में नाना रत्नों से परिपूर्ण ईषत्प्राग्भर है जिसे आठवीं पृथ्वी कहते हैं। इसके