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अनेकान्त/54/3-4
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मानतुंग का समय विवादास्पद है। इस समय को उलझाने में उन मनगढ़ंत · कथाओं का योगदान है जो इस स्तोत्र के संबंध में प्रचलित हैं। भट्टारकादिकों ने इस सरल और वीतराग स्तोत्र को भी मंत्रतंत्रादि और उनकी कथाओं के जाल में फंसाकर दिया। ये मनगढ़ंत कथायें कितनी असंगत परस्पर विरोधी है यह स्पष्ट दिखाई देता है। किसी कथा में मानतुंग को राजा भोज के समय का बताया, तो किसी में कालिदास के, किसी में बाण मयूर के समय में बता दिया गया। यह कथा भी वीतरागता के विपरीत लगती है कि राजा ने कुपित होकर मानतुंग को ऐसे काराग्रह में बंद करवा दिया जिसमें 48 कोठे थे प्रत्येक कोठे में एक एक ताला था । एक वीतरागी साधु को जिसके पास कोई शस्त्रादि नहीं कैसे कोई राजा ऐसा दंड दे सकता है और 48 श्लोक इसीलिये 48 कोठे, 48 ताले। यदि कम श्लोक होते तो? श्वेताम्बर सम्प्रदाय तो 44 श्लोक ही मानते हैं। । इस तरह अनेक विरोधाभास इन कथाओं में है । "
श्री जिनेन्द्र वर्गी ने भक्तामर का समय 11वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना है।"
आचार्य मानतुंग कृत भक्तामर स्तोत्र एक प्राचीनतम स्तोत्र है। यह आचार्य मानतुंग की एक मात्र रचना है। यह आदिनाथ स्तोत्र भी कहलाता है। इस स्तोत्र की यह विशेषता है कि इसे किसी भी तीर्थंकर की भक्ति में मनन किया जा सकता है। काव्य की दृष्टि से इसके 48 काव्य, भक्ति एवं दर्शन को प्रकट करते हैं। समस्त स्तोत्र वसन्ततिलका छन्द में लिखा गया है। पद्यों में उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकारों का समावेश दर्शनीय है। भक्तामर स्तोत्र पर अनेक संस्कृत टीकायें लिखी गयी हैं। हिन्दी एवं अनेक भाषाओं में इसके गद्य एवं पद्यानुवाद उपलब्ध हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों ने इसे अपने-अपने रूप में प्रतिष्ठा दी है।
प्रायः हस्तलिखित ग्रन्थों में भक्तामर स्तोत्र के 48 काव्य ही मिलते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्तोत्र के 32 से 35 तक के चार श्लोक नहीं मानते हैं। क्योंकि इन पद्यों में दुन्दुभि, पुष्प वृष्टि, भामण्डल और दिव्यध्वनि का वर्णन