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________________ 58 अनेकान्त/54/3-4 भट्टारक सलकचन्द के शिष्य ब्रह्मचारी 'पायमल्ल' कृत 'भक्तामर वृति' में, जोकि विक्रम संवत् 1667 में समाप्त हुई है, लिखा है कि 'धाराधीश भोज की राजसभा में कालिदास, भारवि, माघ आदि कवि रहते थे। मानतुंग ने 48 सांकलों को तोड़कर जैनधर्म की प्रभावना की तथा राजा भोज को जैनधर्म का उपासक बनाया। आचार्य प्रभाचन्द ने क्रियाकलाप की टीका के अन्तर्गत भक्तामर स्तोत्र टीका की उत्थानिका में लिखा है 'मानतुंगनामा सिताम्बरो महाकविः निर्ग्रन्थाचार्यवर्यैरपनीतमहाव्याधिप्रतिपन्ननिर्ग्रन्थमार्गो भगवन् किं क्रियतामिति ब्रुवाणो भगवता परमात्मनो गुणगणस्तोत्रं विधीयतामित्यादिष्ट: भक्तामरेत्यादि।' अर्थात् मानतुंग श्वेताम्बर महाकवि थे। एक दिगम्बराचार्य ने उनको महाव्याधि से मुक्त कर दिया, इससे उन्होंने दिगम्बर मार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा-भगवन् अब मैं क्या करूँ? आचार्य ने आज्ञा दी कि परमात्मा के गुणों का स्तोत्र बनाओ, फलतः आदेशानुसार भक्तामर स्तोत्र का प्रणयन किया गया। भट्टारक विश्वभूषण कृत 'भक्तामर चरित' में भोज, भर्तृहरि, शुभचन्द, कालिदास, धनञ्जय, वररुचि और मानतुंग आदि को समकालीन लिखा है। बताया है आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र के प्रभाव से अड़तालीस कोठरियों के तालों को तोड़कर अपना प्रभाव दिखलाया। वि.सं. 1361 के मेरुतुंगकृत 'प्रबन्ध चिंतामणि' ग्रन्थ में लिखा है कि मयूर और बाण नामक साला बहनोई पंडित थे। वे अपनी विद्वता से एक दूसरे के साथ स्पर्धा करते थे। एक बार बाण पंडित अपने बहनोई से मिलने गया और उसके घर जाकर रात में द्वार पर सो गया। उसकी मानवती बहन रात में रूठी हुई थी और बहनोई रात भर मनाता रहा। प्रातः होने पर मयूर ने कहा-'हे तन्वंगी प्राय: सारी रात बीत चली, चन्द्रमा क्षीण सा हो रहा है, यह प्रदीप मानों निद्रा के आधीन होकर झूम रहा है और मान की सीमा तो प्रणाम करने तक होती है। अहो! तो भी तुम क्रोध नहीं छोड़ रही हो?'
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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