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________________ अनेकान्त/54/3-4 का अनुभव करता है। 'वीतरागी भगवान भले ही कुछ न देते हों, किन्तु उनके सान्निध्य में वह प्रेरक शक्ति है जिससे भक्त स्वयं सब कुछ पा लेता है। विद्वानों ने स्तोत्रों की पूजा कोटिसमं स्तोत्रं' कहा है। एक करोड़ बार पूजा करने से जो फल मिलता है वही फल एक बार स्तोत्र-पाठ करने से मिलता है। यतः पूजन करने वाले व्यक्ति का मन पूजन सामग्री एवं अन्य बाह्य क्रियाओं की ओर रहता है पर स्तोत्र का पाठ करने वाला भाव से भगवान के गुणों का स्मरण करता है। आचार्य मानतुंग कृत 'भक्तामर स्तोत्र' दिगम्बर-श्वेताम्बर आदि और सभी जैन सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य है। श्रमण वर्ग और श्रावक वर्ग दोनों ही इसका प्रतिदिन पाठ करते हैं। यहाँ तक कि अनेक श्रावकों का नियम ही होता है कि वह प्रतिदिन इसे पढ़ें या सुन लें। स्तोत्र का पहला शब्द 'भक्तामर' होने के कारण इसका नाम भक्तामर पड़ा। यह भी कहा जाता है कि यह स्तोत्र अपने भक्तों को अमर बनाने वाला है अर्थात परम्परा से मुक्ति देने वाला है इसीलिए भक्त+अमर- भक्तामर कहते हैं। 'भक्तामर स्तोत्र' के रचयिता आचार्य मानतुंग के जीवन-परिचय के सम्बन्ध में अनेक विचारधारायें प्रचलित हैं। कुछ इतिहास वेत्ताओं ने इन्हें हर्षवर्धन के समकालीन बताया है तो कुछ ने भोजकालीन। इनके सम्बन्ध में अनेक कथानक भी प्रचलित हैं। 'प्रभावक चरित' में मानतुंग के सम्बन्ध में लिखा है--'ये काशी निवासी ध नदेव के पुत्र थे। पहले इन्होंने एक दिगम्बर मुनि से दीक्षा ली थी और इनका नाम चारूकीर्ति महाकीर्ति रखा गया था। अनन्तर एक श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अनुयायिनी श्राविका ने उनके कमण्डलु के जल में त्रस जीव बतलाये, जिससे उन्हें दिगम्बर चर्या से विरक्ति हो गयी और जितसिंह नामक श्वेताम्बराचार्य के निकट दीक्षित होकर श्वेताम्बर साधु हो गये और उसी अवस्था में भक्तामर की रचना की।
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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