________________
56
अनेकान्त/54/3-4
"
भक्तामर : ऐतिहासिकता एवं परम्पराभेद
डॉ. ज्योति जैन
जैनधर्म में भक्तिस्वरूप अनेक स्तोत्रों की रचना की गयी है। इन्हीं भक्ति स्तोत्रों में एक स्तोत्र है ' भक्तामर स्तोत्र' | आज हम देखते हैं कि 'भक्तामर स्तोत्र' लोकप्रियता के प्रथम सोपान पर है यद्यपि इससे अन्य स्तोत्रों की महत्ता या चिन्तन कम नहीं हो जाता है। 'भक्तामर स्तोत्र' जैनों के जन-जन में लोकप्रिय हो गया है। मंदिर जी में अखंड पाठ हो या कुछ घंटों का पाठ, प्रायः इसी स्तोत्र का कराया जाता है। कोई भी शुभ कार्य करने से पहले श्रद्धालुजन 'भक्तामर' ? जी का पाठ करना या करवाना नहीं भूलते हैं। आजकल घरों में भी इसका पाठ होने लगा है। हमारे 'पूजा-पंडितों' का भी इसे लोकप्रिय बनाने में कुछ कम योगदान नहीं है। जिस तरह से इसे चमत्कारी कहा गया और श्रद्धालु इस पर श्रद्धानत हो गये, कोई आश्चर्य नहीं । 'भक्तामर स्तोत्र' के व्रत, पूजा, विधान, जाप आदि भी प्रचलित हैं। यह भी सत्य है कि इसके प्रभाव से साधकों को अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं और लोगों की मनोकामनायें पूरी हुई हैं। सचमुच यह स्तोत्र शताब्दियों से भक्तजनों का कण्ठाभरण रहा है। जैनदर्शन में निष्काम भक्ति को महत्त्व दिया गया है। जैनधर्म में ईश्वर या परमात्मा सृष्टिकर्त्ता नहीं है। जैन स्तोत्रों के रचना के मूल मे जिनेश्वर - भक्ति प्रमुख है। इन रचनाओं में भगवन्, परमेष्ठी या देवी-देवताओं की स्तुति की गयी है लेकिन इनमें निहित भक्ति अन्य भक्ति से भिन्न है इसमें भक्त वीतराग प्रभु को प्रसन्न कर लौकिक या अलौकिक कार्य को सफल करने का उद्देश्य नहीं रखता है। क्योंकि वीतरागी किसी की स्तुति से प्रसन्न या निंदा से कुपित नहीं होते हैं। प्रत्येक जीव को अपने किये कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ता है। कर्मो का कर्त्ता और भोक्ता स्वयं जीव ही है हाँ यह बात अलग है कि भक्ति करके मानव अपने अस्थिर मन को एकाग्र करता है और वीतराग-प्रभु के गुणों का स्मरण कर उन जैसा बनने की प्रेरणा लेता है। एक आत्मिक शांति