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अनेकान्त/54-1
पर हुआ अणुबम का प्रहार भी जापान को नष्ट नहीं कर पाया। आज तो हिंसक लोगों की भी हिंसा से आस्था उठ चुकी है। वे भी शान्ति की तलाश में अहिंसा का पक्ष लेते हुए संवाद स्थापित कर रहे हैं। हिंसा का विकल्प अहिंसा ही है। स्वमत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निन्दा से हिंसा जन्मती है। शास्त्रकार हिंसा को नीचगति और अहिंसा को उच्चगति का कारण मानते हैं।
वस्तृत : अहिंसा एक जीवन शैली है जो कहती है-तम भी जियो और मुझे भी जीने दो। इसी में सबका भला है, समाज का हित भी इससे सुरक्षित होता है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अहिंसा की आवश्यकता प्रतिपादित की और इस सम्बन्ध में जैनों का आह्वान करते हए कहा कि-"जैनधर्म ने संसार को अहिंसा की शिक्षा दी है। किसी दूसरे धर्म ने अहिंसा की मर्यादा यहां तक नहीं पहुंचायी। आज संसार को अहिंसा की आवश्यकता महसूस हो रही है; क्योंकि उसने हिंसा के नग्न ताण्डव को देखा है और आप लोग डर रहे है। क्योंकि हिंसा के साधन आज इतने बढ़ते जा रहे हैं और इतने उग्र होते जा रहे हैं कि युद्ध में किसी के जीतने या हारने की बात इतने महत्त्व की नहीं होती जितनी किसी देश या जाति के सभी लोगों को केवल निस्सहाय बना देने की ही नहीं, पर जीवन के मामूली सामान से भी वंचित कर देने की होती है। जिन्होंने अहिंसा के मर्म को समझा है, वे ही इस अंधकार में कोई रास्ता निकाल सकते हैं। जैनियों का आज मनुष्य समाज के प्रति सबसे बड़ा कर्त्तव्य यह है कि वह इस पर ध्यान दें और कोई रास्ता ढूंढ निकालें।"
आज जबकि चहुंओर मोहभंग का दौर चल रहा है। प्रभूत धन भी सुख नहीं दे पा रहा है; तब गृहस्थ जीवन को अहिंसा का संबल देकर ही बचाया जा सकता है। संयम, अनुशासन, निर्लोभता, श्रमशीलता और स्वावलम्बन अहिंसा के आधार हैं। सुख की चाह रखने वाला इनसे बच नहीं सकता। संसार में माग बहुत हैं किन्तु सन्मार्ग तो वही है जिसमें तुच्छ से तुच्छ प्राणी की रक्षा का ध्यान रखा जाये। अहिंसक व्यक्ति यही ध्यान रखता है। अत: अहिंसा ही परम धर्म है।
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