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अनेकान्त/54/3-4
5. यहाँ पर एक यह सावधानी बरतने की जरूरत है कि खाली आत्मा के ध्यान से ही कर्म क्षय होने वाला नहीं है। आत्मध्यान व व्रत याने निश्चय और व्यवहार, व्रतादि चारित्र दोनों का सामंजस्य जरूरी है। यदि यह सावध नी न बरती गई तो लगेगा कि समयसार वह ग्रन्थ है जो कहीं कुछ, कही कुछ कहता है। अगर 'नय' शब्द का मोह छोड़ दें तो बात सीधी है
निश्चय लक्ष्य है, व्यवहार मार्ग है। 6. ऐसा भी प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द कृत ग्रंन्थों के अलावा अन्य ग्रंथों
में व्यवहार नय का तो जिकर है परन्तु निश्चय नय का नहीं है। इसी प्रकार मूलाचार में तो केवल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये छह प्रकार का प्रतिक्रमण बताया है। समयसार में आठ प्रकार के जो प्रतिक्रमण बताएं हैं वे आवश्यक नियुक्ति में भी पाए जाते हैं।
मुझे यदि इजाजत हो तो मैं कहूँगा कि निश्चय मार्ग से मतलब Theory (मूल सिद्धान्त) से है और व्यवहार मार्ग से मतलब Practice (चारित्र) से है। दोनों ही अपनी-अपनी जगह भूतार्थ हैं। यह न भूलना चाहिए कि जिस वस्तु को आत्मा कहते हैं उसको यह नाम हमने अपनी भाषा में याने व्यवहार में ही दिया है। शायद "आत्मा' का इस बात पर ध्यान भी न हो कि उसे कुछ लोग आत्मा, कुछ Soul, कुछ रूह बोलते हैं। इसी प्रकार 'निश्चय नय' यह नाम भी भाषा ही का व्यवहार तो है। यदि यह (समय) सारे हृदयंगम कर लें तो निश्चय व्यवहार का विवाद ही नहीं रहता। विवाद भी व्यवहार का ही है। भूतार्थ, अभूतार्थ ये शब्द भी व्यवहार के ही हैं। यदि व्यवहार को भूतार्थ न माना तो सारे आचार शास्त्र असत्य की कोटि में आ जाएंगे। दरअसल शास्त्र कुछ नहीं जानता है
सत्थं णाणं ण हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणाविंति।। निश्चय नय से ही सही क्या हम कह सकते हैं कि समयसार कुछ नहीं जानता और समयसार के वचन ज्ञान नहीं है। जिनवर कहते हैं कि शास्त्र अलग चीज है, ज्ञान अलग!!