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अनेकान्त /54/3-4
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अन्त में मैं सविनय श्रीमद् राजचन्द्र के इन उद्गारों के स्वर से स्वर मिलाना चाहता हूँ- "हे, कुन्दकुन्द आदि आचार्यों! तुम्हारे वचन भी निज स्वरूप की खोज करने में इस पामर के परम उपकारी हुए हैं, इसलिए मैं तुम्हें अतिशय भक्ति से नमस्कार करता हूँ। "
मंगलम् कुन्दकुन्दाद्यो जैन
धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
215, मन्दाकिनी एन्क्लेव, अलकनंदा, नई दिल्ली-110019