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अनेकान्त/54/3-4
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गिनाकर उनको प्रमुख माना है। उनके सामने समस्या आई कि क्या ये सब नय पर-समय हैं और क्या वास्तव में वे मिथ्या हैं। यदि नयों को मिथ्या कहते हैं तो जिनवाणी ही मिथ्या हो जाती है-अतः उन्होंने कहा कि नहीं, ऐसी बात नहीं है क्योंकि
उभयनय विरोध ध्वंसिनी स्यात् पदांके जिनवचसि रम्यते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परंज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षतएव जो वान्त मोह उस जिनवाणी में प्रीतिपूर्वक अभ्यास करते हैं जो निश्चय और व्यवहार के भेद को ध्वस्त करने के लिए स्यात् पद से अंकित है, वे उस परंज्योति अनव, अनयपक्ष, अक्षुण्ण आत्मतत्व को शीघ्र ही देख लेते हैं।
कुन्दकुन्द ने भी कहा ही है कि लोगों को आत्मा का स्वरूप समझाने के लिए व्यवहार की भाषा का प्रयोग कर रहा हूँ। परन्तु इसका अर्थ क्या यह होता है कि व्यवहार के द्वारा प्रगट किए विचार सही नहीं हैं या कि स्वयं कुन्दकुन्द ऐसा सोचते थे कि व्यवहार असत्यार्थ है? इस भ्रम को दूर करने के लिए कुन्दकुन्द ने तो कहा कि
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है।
किन्तु जान पड़ता है कि फिर भी कोई भ्रांतियां पैदा न हों, इसलिए उन्होंने साफ घोषणा की कि
ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ? भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभाव दरसीहिं
ववहार देसिदो पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे इन गाथाओं का सीधा अर्थ है कि व्यवहार भूतार्थ है और जो भूतार्थ है वह शुद्ध नय नी है और जो भूतार्थ का सहारा लेता है वह जीव निश्चय ही