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________________ 38 अनेकान्त/54/3-4 सम्यक् दृष्टि होता है। जिनका लक्ष्य परम (सिद्ध) भाव है उनके लिए शुद्ध केवल शुद्ध का ही आदेश है। यानि जो परमभाव में स्थित है उसे किसी उपदेश की जरूरत नहीं। शेष के लिए (याने जो परमभाव में स्थित नहीं है उनके लिए) उपदेश व्यवहार से ही दिया जाता है। मगर यहीं से विवाद का प्रारंभ होता है। कुछ मनीषी यह कहते हैं कि इस गाथा में शब्द दर असल अभूतार्थ है और कुछ तो प्राकृत के नियमों की अवहेलना करके गाथा में ही अकार के पूर्व लोप का निशान ऽ बनाते हैं। परन्तु यह सुधार, यह मन्तव्य सही नहीं है। इसका कोई आधार नहीं है। फिर भी टीकाकारों ने भूदत्थो को अभूदत्थो यानि व्यवहार अभूतार्थ है यह पढ़कर बड़े-बड़े व्याख्यान किए हैं। कुन्दकुन्द ने फिर आगे जीवाधिकार ( ज्ञानसागर और कटारिया संस्करण) में कहा कि णिच्छयदो ववहारो पोग्गल कम्माण कत्तारो, यानि असल में व्यवहार में आत्मा को पुद्गल कर्मों का कर्ता कहा जाता है। यदि यह व्यवहार वचन असत्यार्थ है तो फिर क्या कर्म ही अपनी मर्जी से आते जाते रहते हैं। यदि ऐसा होता तो कुन्दकुन्द कर्मबंध और निर्जरा आदि का इतना बड़ा व्याख्यान समयसार की ही लगभग चार सौ से अधिक गाथाओं में क्यों करते? क्यों करते कोई तपस्या ? केवल ध्यान लगाकर ही जीव को देह से, कर्मों से मुक्त कर लेते। यह व्यवहार नय ही तो है कि जब हम कहते हैं कि जीव व देह एक दिखाई देते हैं पर असल में जीव और देह कदापि एक नहीं हैं, अलग अलग हैं, यथा ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि इक्को ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकट्ठो यह बात बिलकुल सही है परन्तु आगे सवाल उठते हैं कि फिर क्या किया जाए कि आइंदा यह देह धारण न करना पड़े। इसलिए साफ-साफ आगे कहते हैं ववहारस्स दरीसणमुवदे सो वण्णिदो जिणवरेहिं । एदे जीवा सव्वे अज्झवसाणादओ भावा ॥
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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