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अनेकान्त/54/3-4
शब्दातीत का वर्णन करना ही व्यवहार है। सारा वाङ्मय व्यवहार ही है। जब एकान्त का हठ न हो तो यही अनेकान्त है और अनेकान्त का ही नाम है सम्यक् ज्ञान। अनुभव यह हुआ कि आत्मा तो अनन्त धर्मा है तो फिर उसे पहचानने के भी अनन्त तरीके होंगे ही। इन्हीं को दार्शनिक परिभाषा में नय कहा जाता है। इसी कारण जिनवाणी विविध नय कल्लोल विमला है। समन्तभद्र का कहना है
अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रामण नय साधनः।
अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात्॥ प्रमाण से अनेकान्त की और अर्पितनय से एकान्त की सिद्धि होती है। प्रमाण व नय से सिद्ध होने के कारण ही जैन दर्शन का अनेकान्त (असली) अनेकान्त है। __ कुन्दकुन्द ने कोई नई खोज नहीं की है। श्रुतकेवलियों ने अपने पूर्ववर्ती चिन्तकों के जो अनुभव सुने थे, पढ़े थे और अपने स्वयं के जो अनुभव हुए थे उन्हीं को कुन्दकुन्द ने हमारे हितार्थ लिखा है, परम्परा और अपना अनुभव दोनों। परन्तु उनने इस सारे दर्शन को व्यवहार नय और निश्चय नय के ज़र्ये व्याख्यायित किया। इसका नतीजा यह हुआ कि बाद के आचार्यो और पंडितों में एक विवाद पैदा हो गया इस बात पर कि कौन सा नय सही है और उपादेय है। उस विवाद में असली तत्त्व आत्मा को जैसे सब भूल गए। इसको साफ करने के लिए कहा गया कि
जावदिया वयणविहा तावदिया होंतिणयवादा जावदिया णयवादा तावदिया होंति पर समये। -सम्मइ सुत्त 3/47 पर समयं वयणं मिच्छे खलु होंदि सव्वहा वयणा जइणाणं पुण वयणं सम्म दु कहंचि वयणादो। गो.क. 894/895
जितने वचन हैं उतने ही नय हैं, जितने नय हैं उतने ही पर समय हैं। यदि जो एक नय को सर्वथा माने, तो वचन पर समय मिथ्या होता है और यदि कथंचिद् माना जाए, तो सम्यक् होता है। अमृतचन्द्र ने प्रवचन सार की टीका में अनेक नयों में से जो अक्सर काम में, व्यवहार में आते हैं उनमें से 47