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________________ 14 अनेकान्त/54-1 SOURCESSESSESSOCIEOSSESSISODISTRI में करता है, किन्तु संकल्पी हिंसा का पूर्णतया त्याग कर सद्गृहस्थ बनता प्रायः द्रव्यहिंसा कम होती है, किन्तु भावहिंसा अधिक होती है क्योंकि उसका सम्बन्ध विचारों से है। कहा भी है स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान्। पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वधः।। अर्थात् प्रमादी मनुष्य अपने हिंसात्मक भाव के द्वारा आप ही अपने की हिंसा पहले ही कर डालता है, उसके बाद दूसरे प्राणियों का उसके द्वारा वध हो या न हो। अन्यत्र भी कहा है मरद व जियद व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बन्धो हिंसामित्तेण समिदस्स। अर्थात् जीव मरे या न मरे अयत्नाचारी के नियम से हिंसा होती है। यदि कोई संयमी अपने आचरण के लिए प्रयत्नशील है, जो (द्रव्य) हिंसा मात्र से उसे कर्मबन्ध नहीं होता। उक्त स्थिति को देखते हुए सभी को भाव हिंसा से बचना चाहिए। अहिंसा का उद्देश्य तो जीवदया है। कहा है कि यस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चरितं कुतः। न हि भूतगृहां कापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत्॥ अर्थात् जिसके हृदय में जीवों की दया नहीं है उसके सच्चरित्र कहां से हो सकता है? जो जीवों से द्रोह करने वाले लोग हैं, उनकी कोई भी क्रिया कल्याणकारी नहीं होती। एक की अल्प हिंसा, हिंसा के तीव्रभाव होने के कारण बहुत अधिक पापरूप फल देती है, जबकि महाहिंसा भी हिंसा के मन्दभाव होने के कारण परिपाक के समय न्यून फल देने वाली होती है। आचार्य कहते हैं एकस्य सैव तीवं दिशतिफलं सैव मन्दमन्यस्य। व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले। अर्थात् एक-सी ही हिंसा एक को तीव्र फल देती है और दूसरे को मंदफल। जिन दो मनुष्यों ने मिलकर हिंसा की हो उनके फल में समानता
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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