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अनेकान्त/54/3-4
के उसी रूप में स्वतन्त्र संचालक थे जिस प्रकार देशी रियासतों के जागीरदार राजा के आधीन होकर भी अपनी निजी पुलिस की तथा अन्य व्यवस्थाएँ करते
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वैदेशिक सम्बन्ध-लिच्छवियों के वैदेशिक सम्बन्धों का नियन्त्रण नौ सदस्यों की परिपद् द्वारा होता था। इनका वर्णन बौद्ध एवं जैन साहित्य में 'नव लिच्छवि' के रूप में किया गया है। अजात शत्रु के आक्रमण के मुकाबले के लिए इन्हें पड़ोसी राज्यों नवमल्ल तथा अष्टादश काशी-कौशल के साथ मिलकर महासंघ बनाना पड़ा। उन्होंने अपने संदेश भेजने के लिए दूत नियुक्त किए (वैशालिकानां लिच्छिविनां वचनेन)। न्याय व्यवस्था
न्याय-व्यवस्था अष्टकुल सभा के हाथ में थी। श्री जायसवाल ने 'हिन्दू राजशास्त्र' (पृष्ठ 43-47) में इनकी न्याय प्रक्रिया का निम्नलिखित वर्णन किया है-"विभिन्न प्रकरणों (पवे-पट्ठकान) पर गणराजा के निर्णयों का विवरण सावधानी पूर्वक रखा जाता था जिनमें अपराधी नागरिकों के अपराध
तथा उनके दिए गए दण्डों का विवरण अंकित होता था। विनिश्चय महामात्र (न्यायालयों) द्वारा प्रारम्भिक जाँच की जाती थी। (ये साधारण अपराधों तथा दीवानी प्रकरणों के लिए नियमित न्यायालय थे)। अपील-न्यायालयों के अध्यक्ष थे-वोहारिक (व्यवहारिक)। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 'सूत्रधार' कहलाते हैं। अन्तिम अपील के लिए 'अष्ट-कुलक' होते थे। इनमें से किसी भी न्यायालय द्वारा नागरिक को निरपराध घोषित करके मुक्त किया जा सकता था। यदि सभी न्यायालय किसी को अपराधी ठहराते तो मन्त्रिमण्डल का निर्णय अन्तिम होता था। विधायिका
लिच्छवियों के संसदीय विचार-विमर्श का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण प्राप्त नहीं होता, परन्तु विद्वानों ने चुल्लवग्ग एवं विनय-पिटक के विवरणों से इस विषय